Book Title: Agam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Author(s): Sanghdas Gani, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 753
________________ १५८] परिशिष्ट-८ जनपद में यह घोषणा कराई कि म्लेच्छ सैनिक आकर जनपद के को लूटना चाहते हैं इसलिए जनता सारी दुर्ग में आ जाए। जिन लोगों ने राजाज्ञा का पालन किया, वे म्लेच्छों के भय से मुक्त हो गए। जिन्होंने राजाज्ञा को नहीं माना, जनपद में ही रहे, म्लेच्छों ने उन्हें लूटा, मारा और जो बच गए थे उनको राजा ने राजाज्ञा न मानने के अपराध में दंडित किया। (गा. ३१०३ टी. प. ४६) ११८. राजा का पारितोषिक एक राजा था। उसके पांच मुख्य सेवक थे। एक बार उन पांचों ने राजा को दुर्ग से बचाया था। पांचों में से एक ने परम साहस का परिचय देकर राजा को संतुष्ट किया था। राजा पांचों के साहस से प्रसन्न होकर इस एक सेवक के अतिरिक्त चारों सेवकों से कहा-मैं तुम पर प्रसन्न हूं। इस नगर की गलियों में, दुकानों में तथा अन्यान्य मार्गों में जहां कहीं से भी तुमको जो आहार, वस्त्र आदि लेने हों, वे लो, उनका मूल्य राज्य से चुकाया जाएगा। वे चारों सेवक बहुत प्रसन्न हुए। और अब अपनी आवश्यकतानुसार वस्त्र, भोजन, सामग्री आदि प्राप्त करने लगे। राजा उन-उन व्यापारियों की वस्तुओं का मूल्य चुका देता। एक अति साहसी सेवक पर परम प्रसन्न होकर राजा ने कहा-तुम कहीं से भी आहार-वस्त्र आदि ले सकते हो। केवल वीथि या दुकानों से ही नहीं, घरों से भी वस्तुएं ले सकते हो। मूल्य राजकोष से चूका दिया जाएगा। वह सेवक अतिरिक्त पारितोषिक पा प्रसन्न हुआ। (गा. ३१०६-३१०८ पत्र ४७) ११६. राजा का विवेक एक वणिक् था। उसकी पत्नी गर्भवती थी। वह वणिक् अचानक मर गया। किसी ने जाकर राजा से कहा-देव ! पतिविहीन उस गर्भवती स्त्री के पास धन है। राजा ने कहा-उसका धन उसी के पास रहने दो। यदि उसके लड़का होगा तो वह धन उसका हो जाएगा और यदि कन्या होगी तो उसके भरण-पोषण योग्य तथा विवाह योग्य धन उसके काम आ जाएगा। (गा. ३२५१ टी. प. ७१) १२०. क्षुल्लक की युक्ति और साहस एक गांव था। वहां मालव देश के शबरजातीय सैनिकों ने पड़ाव डाला। वहां मनुष्यों का अपहरण करने वाले कुछ चोरों ने एक आर्यिका का और एक क्षुल्लक मुनि का अपहरण कर लिया। वे दूसरे चोर को उन्हें सौंप, स्वयं अन्य के अपहरण के लिए निकल पड़े। वह चोर प्यास से आकुल-व्याकुल हो गया। वह पानी की खोज करने निकला। एक कुएं में पानी निकालने उतरा। क्षुल्लक ने सोचा-हम इतने सारे मुनि हैं और यह चोर अकेला है। क्या हम इसको नहीं जीत सकते ? यह सोचकर उसने आर्यिकाओं से कहा कि हम इस चोर पर पाषाण बरसाएं और उसे पत्थरों से ढक दें। आर्यिकाओं ने क्षल्लक का समर्थन नहीं किया। तब क्षुल्लक ने सोचा, चोर हम सबको मार न डाले इसलिए उसने एक बड़ा पत्थर चोर पर लुढ़काया। यह देखकर सभी आर्यिकाओं ने एक साथ पाषाण लुढ़काए। पाषाणों से आक्रान्त होकर वह चोर मरण को प्राप्त हो गया। क्षुल्लक ने सभी आर्यिकाओं को सुरक्षित कर डाला। (गा. ३२५२ टी. प. ७२) १२१. लोभी अमात्य एक राजा ने अमात्य को आज्ञा दी कि वह एक प्रासाद का शीघ्र ही निर्माण कराए। उसने प्रासाद बनाने के लिए कर्मकरों को नियुक्त किया। वह अमात्य अत्यंत लोभी था। वह कर्मकरों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संक्लेश देता था। द्रव्य से—वह उन्हें असंस्कारित और लवणरहित सूखे चनों का थोड़ा-सा भोजन देता था। क्षेत्र से—वह उनसे अग्नि से संबंधित कार्य करवाता, पर अनुचित भक्त-पान देता था। काल से-भोजन भी वह सायंकाल देता। भाव से---उन कर्मकरों को विश्राम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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