Book Title: Agam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Author(s): Sanghdas Gani, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 784
________________ परिशिष्ट-१२ [१५६ अवराहो गुरु तासिं,.... जं निठुरमुत्तरं बेंति । उनका अपराध गुरु होता है, जो गलती बताने पर निष्ठुर उत्तर देते हैं (गा. २८४७) सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदो। चारित्र शुद्ध व्यक्ति में ठहरता है। माया से चारित्र खंडित हो जाता है। (गा. २६०२) कलुसप्पा करे पावं। पाप वह करता है, जिसका मन कलुषित होता है। (गा. २६८६) नवणीयतुल्लहियया साहू। साधुओं का हृदय नवनीत के समान कोमल होता है। (गा. २६६८) पुरिसस्स निसंग्गविसं इत्थी एवं पुमं पि इत्थीए । पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष सहज विष है। (गा. ३०३०) घाण-रस-फासतो वा, दव्वविसं वा सइंऽतिवाएति । सव्वविसयाणुसारी, भावविसं दुज्जयं असई।। द्रव्य विष प्राणी को एक बार ही मारता है। भाव विष प्राणी को अनेक बार मारता है। द्रव्य विष घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय या स्पर्शेन्द्रिय से गृहीत होता है। भाव विषं समस्त इन्द्रियग्राही है। (गा. ३०३१) जदि नत्थि नाण चरणं, दिक्खा हु निरस्थिगा तासिं । यदि ज्ञान और चारित्र नहीं है तो वह दीक्षा निरर्थक है। (गा. ३०४८) सव्वजगुजोतकरं नाणं। ज्ञान सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाला है। (गा. ३०४६) नाणेण नज्जते चरणं। ज्ञान से चारित्र जाना जाता है। (गा. ३०४६) नाणम्मि असंतम्मी, किह नाहिति विसोहिं । ज्ञान के अभाव में विशोधि नहीं जानी जा सकती। (गा. ३०४६) नाणम्मि असंतम्मि, चरित्तं पि न विजते। चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे नो सचरित्तया।। जहां ज्ञान नहीं, वहां चारित्र नहीं। जहां चारित्र नहीं, वहां सदचरित्र वाला तीर्थ नहीं होता। (गा. ३०५०) णाणादिसारहीणस्स, तस्स छलणा तु संसारे । जो ज्ञान-दर्शन आदि के सार से शून्य है, उसका सारा व्यवहार छलना है। (गा ३१०५) न हि सूरस्स पगासं, दीवपगासो विसेसेति। दीपक का प्रकाश सूर्य के प्रकाश को विशेषित नहीं करता। (गा. ३८८४) जो एतेसु न वट्टति, कोधे दोसे तधेव कंखाए। सो होति सुप्पणिहितो, सोभणपणिधाणजुत्तो वा।। जो क्रोध, द्वेष तथा कांक्षा में प्रवर्तित नहीं होता, वह इन्द्रियजयी और आत्मप्रणिधानवान होता है। (गा. ४१५५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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