Book Title: Agam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Author(s): Sanghdas Gani, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 786
________________ परिशिष्ट-१२ [१६१ कम्मसंखेजभवं, खवेति अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नतरगम्मि जोगे, विसेसतो उत्तिमट्ठम्मि ।। जो संयम योग के किसी भी प्रकार में प्रयत्नशील होता है, वह असंख्य भवों के कर्मों को प्रतिसमय क्षीण करता है किन्तु जो संथारा करता है, वह विशेष निर्जरा करता है। (गा. ४३४१) जिणवयणमप्पमेयं मधुरं। वीतराग की वाणी अपरिमित और मधुर होती है। (गा. ४३५१) आहाराओ रतणं, न विज्जति हु उत्तमं लोए । लोक में आहार से उत्तम कोई रत्न नहीं है। (गा. ४३५६) सव्वे सव्वावत्थं, आहारे होंति उवउत्ता। सभी प्राणी सभी अवस्थाओं में आहार लेते हैं। (गा. ४३५७) न यावि चरणं विणा नाणं । ज्ञान के बिना चारित्र नहीं होता। (गा. ४६३६) ऊणट्ठए चरित्तं, न चिट्ठए चालणीय उदगं वा। लघु वय वाले व्यक्ति में चारित्र नहीं ठहरता, जैसे चालनी में पानी। (गा. ४६४६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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