Book Title: Agam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Author(s): Sanghdas Gani, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 781
________________ १८६ ] दोहं चउकण्णरहं भवेज छक्कण्ण मो न संभवति । चार कानों (दो व्यक्तियों) तक रहस्य रहस्य रहता है। छह कानों (तीन व्यक्तियों) तक पहुंचने पर रहस्य रहस्य नहीं रहता। (गा. १८५२ ) पुरिसोत्तरिओ धम्मो, होति पमाणं पवयणम्मि । जिन प्रवचन में पुरुषोत्तर धर्म ही प्रमाण है। दुक्खं खु सामण्णं । श्रामण्य का पालन दुष्कर है। इति खलु आणा बलिया. आणासारो य गच्छवासो उ । मोत्तुं आणापाणुं, सा कज्जा सव्वहिं जोगे । । भगवद् आज्ञा ही बलवान् है। आज्ञा का पालन करना चाहिए। सुहसीलो दुट्ठसीलो ति । जो सुखशील होता है, वह अधम होता है । तणुगं पि नेच्छ दुक्खं, सुहमाकंखए सदा । सुहसीलतए वावी, सायागारवनिस्सितो ।। सुखशील व्यक्ति तनिक भी कष्ट नहीं सह सकता। वह सदा सुखाकांक्षी बना रहता है। अतिरेगउवधिअधिकरणमेव सज्झाय-झाण पतिमंथो । अतिरिक्त उपधि का संग्रह कलह का कारण और स्वाध्याय-ध्यान का अवरोधक होता है। न संचये सुहं अस्थि, इहलोए परत्थ य । आज्ञा का सार है गच्छ में रहना। आनापान को छोड़कर संघ में रहते हुए सब योगों से (गा. २०७४) संचय -- परिग्रह से न इहलोक में सुख है और न परलोक में। वंतं निसेवितं होति, गेण्हंता संचयं पुणो । जो प्रव्रजित होकर संचय करते हैं, वे वान्त या त्यक्त का पुनरासेवन करते हैं। मिच्छत्तं न जधावादी, तधाकारी भवंति उ । मिथ्यादृष्टि व्यक्ति की कथनी-करनी समान नहीं होती । दुल्लभलाभा समणा । श्रमणों का सान्निध्य दुर्लभ है। परिशिष्ट- १२ Jain Education International (गा १८८६) For Private & Personal Use Only (गा. २०३३) (गा. २१६७) (गा. २१६८ ) (गा. २१७६) (गा. २४१५ ) (गा. २४२१ ) (गा. २४२१ ) चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ परितम्ममाणं तं जाणसु मंदसंविग्गं ।। चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तधेव सज्झाओ। एत्थ उ उज्जममाणं तं जाणसु तिव्वसंविग्गं । । चरण-करण - महाव्रतों के पालन का सार है संयम और स्वाध्याय करना । जो इसमें परितप्त होता है, उसका वैराग्य मंद है। जो संयम और स्वाध्याय में प्रयत्नशील रहता है, उसका वैराग्य तीव्र होता है। (गा. २४८४, २४८५). (गा. २४५१ ) www.jainelibrary.org

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