Book Title: Agam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya
Author(s): Sanghdas Gani, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 751
________________ १५६ ] परिशिष्ट-८ शालि काटने लगे। इतने में ही एक सुन्दर सफेद हाथी उधर दृष्टिगत हुआ। किसान ने सभी कर्मकरों को हाथी दिखाया। वे सभी शालि काटना छोड़कर हाथी के आगे-पीछे भागे। खेत तक उसके साथ आए और बहुत समय तक देखते रहे। फिर हाथी का वर्णन करने लगे। धान काटना बन्द हो गया। समय व्यतीत हो गया। किसान को हानि उठानी पड़ी। १११. (ख) एक दूसरा किसान था। उसकी दासी शालि काटने खेत में गई। दासी ने सुन्दर सफेद हाथी देखा। उसने सोचा यदि मैं कर्मकरों को हाथी की बात कहूंगी तो वे सब कटाई छोड़कर बातों में लग जायेंगे। किसान को हानि होगी। लोग इसके वर्णन में लग जायेंगे। जब पूरे खेत की कटाई हो गई, तब दासी ने अपने स्वामी किसान तथा कर्मकरों से हाथी की बात कही। उन्होंने कहा- पहले क्यों नहीं बताया ? दासी बोली-कटाई में बाधा उपस्थित होती, इसलिए नहीं बताया। इस बात पर किसान प्रसन्न हुआ और दासी को दासत्व से मुक्त कर दिया। (गा. २६५३, २६५४ टी. प. ३८) ११२. प्रमाद का फल एक गांव था। गांववासियों ने राजकूल के लिए एक शकट बनवाया। जब कभी राजा की ओर से आदेश आता कि घृत-घट आदि लाने हैं अथवा अन्यत्र ले जाने हैं, तो वे ग्रामीण लोग उसी शकट में लाते-ले जाते थे। इस शकट का कोई स्वामी नहीं है, यह सोचकर वे उसी शकट से अपना प्रयोजन भी सिद्ध कर लेते थे। अस्वामित्व की बुद्धि से वे शकट का संरक्षण नहीं करते थे। कालान्तर में वह शकट टूट गया। अस्त-व्यस्त हो गया। कुछ दिनों बाद राजा ने ग्रामीणों को आज्ञापित किया कि इतना धान्य शकट से राजभवन में पहुंचा दो। ग्रामीणों ने आज्ञा सुनी, परंतु शकट के अभाव में वे धान्य नहीं पहुंचा सके। राजा ने उसे अपनी आज्ञा का भंग जानकर उन ग्रामीणों को दंडित किया। अब अपने प्रयोजन के लिए भी वे शकट का उपयोग नहीं कर पा रहे थे। वे दुःखी हो गए। (गा. २६६६, २६६७ टी. प. ४०) ११३. आचार्य द्वय : आर्यसमुद्र और मंगु जैन परंपरा में आर्यसमुद्र तथा आचार्य मंगु प्रभावक आचार्य हुए हैं। आर्यसमुद्र दुर्बल थे। उन्होंने अतिरिक्तता का उपभोग नहीं किया। वे योगसंधान करने के लिए भी अशक्त हो गए। उनके शिष्य उनके लिए प्रतिदिन विश्रामणारूप तीन कृतिकर्म करते थे। दो सूत्रार्थपौरुषी के समय और तीसरा चरम पौरुषी के समय। आर्यसमुद्र के लिए श्रावक उनके योग्य आहार आदि देते थे। शिष्य उस आचार्य प्रायोग्य आहार को अलग पात्र में लाते थे। __आचार्य मंग के लिए न कृतिकर्म होता था और न उनके प्रायोग्य आहार अलग पात्र में लाया जाता था। यद्यपि श्रद्धालओं से उत्कष्ट भक्तपान प्राप्त होता था. फिर भी शिष्य उसे एक ही पात्र में ले लेते थे। आचार्य मंग अलग पात्र में लाया हुआ आहार ग्रहण नहीं करते थे। वे दोनों आचार्य एकदा साथ-साथ विहार करते हुए सोपारक नगर में आए। वहां दो श्रावक थे। एक शाकटिक और दूसरा वैकटिक-सुरा संधानकारी। उन दोनों ने देखा कि आचार्य आर्यसमुद्र के लिए प्रणीत भोजन भिन्न पात्र में लाया जा रहा है और आचार्य मंगु के लिए सामान्य पात्र में लाया जा रहा है। यह देखकर उन्हें विस्मय हुआ। वे आचार्य मंगु के पास आए और बोले-भंते ! आर्यसमुद्र की भांति आपके लिए विशिष्ट आहार अलग पात्र में क्यों नहीं आता ? आचार्य बोले अहो शाकटिक ! देखो. जब तम्हारा शकट दर्बल हो जाता है तब तम उसे रस्सी आदि से बांधकर ठीक कर देते हो। तब उस शकट में तुम माल आदि ले जा सकते हो। यदि तुम शकट का उचितरूप में परिकर्म नहीं करते हो तो वह शकट टूट जाता है, नष्ट हो जाता है। और जो शकट वहन करने के लिए योग्य है, उसका तुम परिकर्म नहीं करते। फिर वैकटिक से कहा—वैकटिक ! सुरा रखने की तुम्हारी कुंडिका यदि दुर्बल है, क्षीण हो गई है तो तुम उसे बांस की खपचियों से बांधकर उसमें सुरा रखते हो। जो कुंडी यथावत् है उसके लिए कुछ भी बंधन नहीं देते। वह तुम्हारी काम की होती है। आर्यसमुद्र वृद्ध हैं, दुर्बल हैं, इसलिए उनके शरीर-धारण के लिए योग्य आहार अत्यंत अपेक्षित है। इसलिए वैसा आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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