Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 50] [पुष्पिका नाम गाहावई होत्था अड़े जाव [दित्ते वित्त विस्थिपणविउलभवण-सयणासण-जाणवाहणे बहुधणबहुजायसवरयए आओगपयोगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणेबहुदासीदास-गोमहिसवेलगप्पभूए बहुजणस्स] अपरिभूए / तए णं से अङ्गई गाहावई सावत्थीए नयरोए बहूणं नगर-निगम से ट्ठि-सेणावइसत्थवाह-दूय-संधिवालाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मन्तेसु य कुडुम्बेसु य गुन्झसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं कुडुम्बस्स मेढी पमाणं आहारे मालम्बणं, चक्खू, मेढीभूए जाव सम्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था / जहा आणन्दो। [3] गौतम ! इस प्रकार से श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम को आमंत्रित--संबोधित कर कहा--- गौतम ! उस काल और उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहाँ कोष्ठक नामक चैत्य था / उस श्रावस्ती नगरी में अंगति (अंगजित) नामक एक गाथापति-सद्गृहस्थ निवास करता था, जो धनाढ्य संस्कारी, तेजस्वी, प्रभावशाली, संपन्न, विशाल और विपुल भवन शयन-शैया, बिछौना, प्रासन, आदि यान-रथ आदि, का, वाहन--बैल, घोडे आदि और प्रचुर सोने, चांदी सिक्का आदि का स्वामी एवं अर्थोपार्जन के उपायों में निरत था। भोजन करने के बाद भी उसके यहाँ पुष्कल खाद्य पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से दास, दासी, गाय, भैंस, बैल, भेड़ें आदि थीं। लोगों द्वारा अपरिभूत था-प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण जिसका अपमान, तिरस्कार, अनादर किया जाना संभव नहीं था। वह अंगजित गाथापति (आनन्द श्रावकवत) श्रावस्ती नगरी के बहुत से नगरनिवासी व्यापारी, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत, संधिपालक-सीमारक्षक आदि के अनेक कार्यों में, कारणों में, मंत्रणाओं में, पारिवारिक समस्याओं में, गोपनीय बातों में, निर्णयों में, सामाजिक व्यवहारों में पूछने योग्य एवं विचार-परामर्श करने योग्य था एवं अपने कुटुम्ब परिवार का मेढिकेन्द्र, प्रमाण-व्यवस्थापक, आधार, प्रालंबन, चक्षु-मार्गदर्शक, मेढिभूत यावत् (प्रमाणभूत, आधारभूत, पालंबनभूत, चक्षुभूत) तथा सब कार्यों में अग्रेसर था। अर्हत् पार्श्व का पदार्पण 4. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे गं अरहा पुरिसादाणीए आइगरे, जहा महावीरो, नवुस्सेहे सोलसेहिं समणसाहस्सोहि अद्वतीसाए अज्जियासहस्सेहिं [जाय] कोट्ठए समोसढे / परिसा निग्गया। तए णं से अङ्गई गाहावई इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हटे जहा कत्तिओ सेट्ठी तहा निग्गच्छइ [जाव] पज्जुवासइ / धम्म सोच्चा निसम्म, जं नवरं, "देवाणुपिया! जेटुपुत्तं कुड़म्बे ठावेमि / तए गं अहं देवाणुप्पियाणं जाव पध्वयामि" / जहा गङ्गदत्त तहा पच्चइए [जाव] गुत्तबम्भयारी। [4] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के समान धर्म की आदि करने वाले इत्यादि विशेषणों से युक्त, नौ हाथ की अवगाहना वाले पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व प्रभु सोलह हजार श्रमणों एवं अड़तीस हजार प्रार्याओं के समुदाय के साथ गमन करते हुए यावत् कोष्ठक चैत्य में समवसृत हुए--पधारे / परिषद् दर्शनार्थ निकली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org