Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 163
________________ 130] [महाबल समर्थ नहीं हुए तब अनिच्छापूर्वक महाबलकुमार से इस प्रकार कहा-'हे पुत्र ! एक दिन के लिए ही सही किन्तु हम तुम्हारी राज्यश्री को देखना चाहते हैं।' तब महाबल कुमार माता-पिता को उत्तर न देकर मौन ही रहा / 26. तए णं से बले राया कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ एवं जहा सिवभहस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियन्यो, जाव अभिसिञ्चइ / करयलपरिग्गहियं महब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वद्धान्ति, 2 त्ता जाव एवं क्यासी--'मण, जाया, कि पयच्छामो,' सेसं जहा जमालिस्त तहेव, जाय / [26] तत्पश्चात् बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / यावत् महाबल कुमार को शिवभद्र के समान राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया, इत्यादि वर्णन यहाँ जान लेना चाहिए। अभिषेक के पश्चात् दोनों हाथ जोड़ जय-विजय शब्दों से महाबल कुमार को बधाया, यावत् इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! बताओ हम तुम्हें क्या दें ? इत्यादि शेष समस्त वर्णन जमालि के समान जानना चाहिए। 27. तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अन्तियं सामाइयाई चोद्दस्स पुन्वाई अहिज्जइ, २त्ता बहूहि चउत्थ जाव विचितहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए आलोइय पडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ड चन्दिमसूरियं जहा अम्मडो, जाव बम्भलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पत्नत्ता, तत्थ णं महब्बलस्स वि दस सागरोक्माई ठिई पन्नत्ता। तत्पश्चात् महाबल अनगार ने धर्मघोष स्थविर के पास सामायिक से प्रारम्भ कर चौदह पूर्वो का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत से चतुर्थभक्त (उपवास) यावत् विविध विचित्र तपःकर्म से आत्मा को भावित-शोधित करते हए परिपूर्ण बारह वर्ष तक श्रमण पर्याय का पालन कि पालन करके एक मास की संलेखना पूर्वक साठ भक्तों का अनशन द्वारा त्याग कर पालोचनाप्रतिक्रमण करते हुए समाधि सहित काल मास में कालप्राप्त हो यावत् अम्बड के समान ऊर्ध्व दिशा में चन्द्र सूर्य प्रादि से बहुत दूर पर ब्रह्मलोक कल्प में देवरूप से उत्पन्न हुए। वहाँ कितने ही देवों की दस सागरोपम की स्थिति होती है / महाबल देव की भी दस सागर की स्थिति हुई। (हे सुदर्शन ! तुम पूर्वभव में दस सागरोपम पर्यन्त दिव्य भोगोपभोगों को भोगकर आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्युत होकर इसी वाणिज्यग्राम नगर के श्रेष्ठी कुल में पुत्र रूप से उत्पन्न हुए हो।) (भगवतीसूत्र शतक 11, उद्देशक 11 से) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178