Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 98] [पुष्पचूलिका आई / पाकर दोनों हाथ जोड़कर यावत् अंजलि करके जमालि की तरह माता-पिता से प्राज्ञा मांगी / (अन्त में माता-पिता ने अपनी अनुमति देते हुए कहा-) देवानुप्रिये ! जैसे सुख हो, तदनुकूल करो। तदनन्तर सुदर्शन गाथापति ने विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम भोजन बनवाया और मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया यावत् भोजन करने के पश्चात् शुद्ध-स्वच्छ होकर अभिनिष्क्रमण कराने के लिए कौटु म्बिक पुरुषों को बुलाया, और बुलाकर उन्हें प्राज्ञा दी-देवानुप्रियो ! शीघ्र ही दीक्षार्थिनी भूता दारिका के लिए सहस्र पुरुषों द्वारा वहन की जाए ऐसी शिविका (पालकी) लामो और लाकर यावत् कार्य होने की सूचना दो। तब वे कौटुम्बिक पुरुष यावत् आदेशानुसार कार्य करके आज्ञा वापिस लौटाते हैं। तत्पश्चात् उस सुदर्शन गाथापति ने स्नान की हुई और आभूषणों से विभूषित शरीर वाली भूता दारिका को पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ किया और वह मित्रों, जातिबांधवों प्रादि के साथ यावत वाद्यघोषा पूर्वक राजगह नगर के मध्य भाग में से होते हए जहाँ गुणशिलक चैत्य था, वहाँ पाया और छत्रादि तीर्थंकरातिशयों को देखा / देखकर पालकी को रोका और उससे भूता दारिका को उतारा / ___ इसके बाद माता-पिता उस भूता दारिका को आगे करके जहाँ पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्वप्रभु विराजमान थे, वहाँ आए और तीन वार आदक्षिण-प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार किया तथा इस प्रकार निवेदन किया--देवानप्रिय! यह भूता दारिका हमारी एकलौती पुत्री है। यह हमें प्रिय है / देवानुप्रिय ! यह संसार के भय से उद्विग्न-भयभीत होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर यावत् प्रवजित होना चाहती है / देवानुप्रिय ! हम इसे शिष्या-भिक्षा के रूप में आपको समर्पित करते हैं / अाप देवानुप्रिय इस शिष्या-भिक्षा को स्वीकार करें। अर्हत् पार्श्व प्रभु ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे वैसा करो।' ___ तब उस भूता दारिका ने पार्श्व अर्हत् की अनुमति-स्वीकृति सुनकर हर्षित हो, उत्तर-पूर्व दिशा में जाकर स्वयं प्राभरण-प्रलंकार उतारे। यह वृत्तान्त देवानन्दा के समान कह लेना चाहिए / अर्हत् प्रभु पार्श्व ने उसे प्रवजित किया और पुष्पचूलिका प्रार्या को शिष्या रूप में सौंप दिया / उसने पुष्पचूलिका आर्या से शिक्षा प्राप्त की यावत् वह गुप्त ब्रह्मचारिणी हो गई। शरीरबकुशिका भूता 8. तए णं सा भूया अज्जा अन्नया कयाइ सरीरबाउसिया जाया यावि होत्था। अभिक्खणं 2 हत्थे धोवइ, पाए धोवइ, एवं सीसं धोवह, मुहं धोवइ, थणगन्तराई धोवइ, कक्खन्तराई धोवइ, गुज्झन्तराई धोवइ, जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य णं पुष्वामेव पाणएणं अभुक्खेइ, तम्रो पच्छा ठाणं वा सेज्जं वा निसीहियं वा चेएइ / 1. भगवती सूत्र, श. 9 उ. 33 2. भगवती सूत्र, श० 9 उ० 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org