Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 136
________________ वर्ग 5 : प्रथम अध्ययन] [103 द्वारका नगरी 5. एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नाम नयरी होत्था, दुवालस जोयणायामा धणवइमइनिम्मिया चामीयरपवरपागार-नाणामणि-पञ्चवण्णकविसीसगसोहिया अलयापुरीसंकासा पमुइयपक्कीलिया पच्चक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। [5] हे जम्बू ! उस काल और उस समय में द्वारवती--(द्वारका) नाम की नगरी थी। वह पूर्व-पश्चिम में बारह योजन लम्बी और उत्तर-दक्षिण में नौ योजन चौड़ी थी, अर्थात् उसकी चौड़ाई नौ योजन और लंबाई बारह योजन की थी। उसका निर्माण स्वयं धनपति (कुबेर) ने अपने मतिकौशल से किया था। स्वर्ण निर्मित श्रेष्ठ प्राकार (परकोटा) और पंचरंगी मणियों के बने कंगूरों से वह शोभित थी / अलकापुरी--इन्द्र की नगरी के समान सुन्दर जान पड़ती थी। उसके निवासीजन प्रमोदयुक्त एवं क्रीडा करने में तत्पर रहते थे। वह साक्षात् देवलोक सरीखी प्रतीत होती थी। मन को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थी। रैवतक पर्वत 6. तोसे गं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं रेवए नाम पव्वए होत्या-तुङ्ग गयणयलमणुलिहन्तसिहरे नाणाविहरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लया-वल्लीपरिगयाभिरामे हंसमिय-मयूर-कोच-सारस काग-मयणसाल-कोइल-कुलोववेए तडकडगवियरउब्झरपवायपन्भारसिहरपउरे अच्छरगण-देवसंघ-विज्जाहर-मिहुण-संनिचिण्णे निच्चच्छणए दसारवरवीरपुरिसतेल्लोक्कबलयगाणं सोमे सुभए पियवंसणे सुरुवे पासादीए [जाव] पडिरूवे / [6] उस द्वारका नगरी के बाहर उत्तरपूर्व दिशा-ईशान कोण में रैवतक नामक पर्वत था। वह बहुत ऊँचा था और उसके शिखर गगनतल को स्पर्श करते थे / वह नाना प्रकार के वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं और वल्लियों से व्याप्त था। हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मदनसारिका (मैना) और कोयल आदि पशु-पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था। उसमें अनेक तट, मैदान और गुफाएँ थीं। झरने, प्रपात, प्रारभार (कुछ-कुछ नमे हुए गिरिप्रदेश) और शिखर थे। वह पर्वत अप्सराओं के समूहों, देवों के समुदायों, चारणों और विद्याधरों के मिथुनों (युगलों) से व्याप्त रहता था। तीनों लोकों में बलशाली माने जाने वाले दसारवंशीय वीर पुरुषों द्वारा वहां नित्य नये-नये उत्सव मनाए जाते थे। वह पर्वत सौम्य, सुभग, देखने में प्रिय, सुरूप, प्रासादिक, दर्शनीय, मनोहर और अतीव मनोरम था। नन्दनवन उद्यान, सुरप्रिय यक्षायतन 7. तत्थ णं रेवयगस्स पव्ययस्स अदूरसामन्ते एत्थ णं नन्दणवणे नामं उज्जाणे होत्थासध्योउयपुप्फफलसमिद्ध रम्मे नन्दणवणप्पगासे पासादीए जाय दरिसणिज्जे / तस्स णं नन्दणवणे उज्जाणे सुरपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था-चिराईए [जाव] बहुजणो आगम्म प्रच्चेइ सुरप्पियं जक्खाययणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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