Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ परिशिष्ट 1] [117 है। देवानुप्रिये ! अर्थलाभ होगा, देवानुप्रिये ! भोगलाभ होगा, देवानुप्रिये ! पुत्रलाभ होगा, देवानुप्रिये ! राज्यलाभ होगा। देवानुप्रिये ! परिपूर्ण नौ मास और साढे सात दिन बीतने पर तुम अपने कुल के ध्वज समान, कुल को पानंद देने वाले, कुल की यशोवृद्धि करने वाले, कुल के लिए आधारभूत, कुल में वृक्ष के समान, कुल-वृद्धिकारक, सुकुमाल हाथ-पैर प्रमाणोपेत अंग-प्रत्यंग एवं परिपूर्ण पंचेन्द्रिय युक्त शरीर वाले यावत् चन्द्र के समान सौम्य प्राकृति वाले, कान्त (ओजस्वी) प्रियदर्शन, सुरूप एवं देवकुमारवत् प्रभावाले पुत्र का प्रसव करोगी / 7. से वि य गं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरियणमेत्ते जोव्यणगमणुप्पत्ते सूरे बोरे विक्फन्ते विस्थिग्णविउलबलवाहणे रज्जवई राया भविस्सइ / तं उराले णं तुमे, जाव सुमिणे विट्ठे, आरोग्ग-तुट्टि० जाव मङ्गलकारए गं तुमे देवी! सुविणे दिठेत्ति कटु पभावई देवि ताहि इट्टाहि जाय बग्गूहि दोच्चं पि तच्चं पि अणुबहइ / [7] वह पुत्र भी बालभाव से मुक्त होकर विज्ञ एवं परिणत-पुष्ट शरीर हो युवावस्था को प्राप्त करके शूरवीर, पराक्रमी, विस्तीर्ण-विशाल और विपुल बल (सेना) तथा वाहन वाले राज्य का अधिपति-राजा होगा। अतएव तुमने उदार यावत् स्वप्न देखा है, देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टिप्रद, यावत् मंगलकारक स्वप्न देखा है, इस प्रकार कहकर इष्ट वाणी से इसी बात को दूसरी और तीसरी बार भी प्रभावती देवी से कहा / 8. तए णं सा यमावई देवी बलस्स रन्नो अन्तियं एयमझें सोच्चा निसम्म हद्वतुट्ठ० करयल जाय एवं क्यासी-'एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेयं देवाणुप्पिया ! इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुम्भे वयह' ति कटु तं सुविणं सम्म पडिच्छा, २त्ता बलेणं रना अन्भणुनाया समाणी नाणामणि-रयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुइ, 2 ता प्रतुरियमचवल जाव गईए सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, 2 त्ता सयणिज्जंसि निसीयइ, 2 ता एवं वयासी-'मा मे से उत्तमे पहाणे मङ्गल्ले सुविणे अन्नेहि पावसुमिणेहि पडिहम्मिस्सइ' त्ति कटु देवगुरुजणसंबद्धाहि पसत्याहिं मङ्गलाहिं धम्मियाहि कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरह। [8] बल राजा से इस फलकथन को सुनकर और हृदय में धारण कर प्रभावती देवी हृष्टतुष्ट हो यावत् दोनों हाथ जोड़कर अंजलि पूर्वक इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! आपने जो कहा, वह इसी प्रकार है, देवानुप्रिय ! वह यथार्थ है, देवानुप्रिय ! सत्य है, देवानुप्रिय ! संदेहरहित है देवानुप्रिय ! वह मुझे इच्छित है, देवानुप्रिय ! मुझे स्वीकृत है, देवानुप्रिय ! इच्छित एवं अभिलषित है / वह वैसा ही है, जैसा आपने कहा है। इस प्रकार कहकर उसने स्वप्न के प्राशय (भाव) को सम्यक् प्रकार से स्वीकार किया। फिर बल राजा से अनुमति लेकर अनेक प्रकार के मणिरत्नों से रचित चित्रामों वाले भद्रासन से उठाकर शीघ्रता एवं चपलता रहित गति से चलकर अपने शयनागार में आई और प्राकर अपनी शैया पर बैठी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org