Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ वर्ग 3 : तृतीय अध्ययन] 23. तए णं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उवागच्छइ / उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेई वड्ढइ, जाव संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुन्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे, जाव एवं वयासो-'हं भो सोमिला, पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते,' पढम भणइ, तहेव तुसिणीए संचिट्ठइ / देवो दोच्चं पि तच्चं पि वयइ-"सोमिला, पवइया, दुप्पव्वइयं ते / " तए णं से सोमिले तेणं देवेणं दोचचं पि तच्चं पि एवं वृत्ते समाणे तं देवं एवं वयासी-"कहं णं देवाणुप्पिया ! मम दुप्पव्वइयं ?" तए णं से देवे सोमिलं माहणं वयासो—'एवं खलु देवाणुप्पिया! तुमं पासस्स अरहो पुरिसादाणीयस्स अन्तियं पञ्चाणुव्वए सत्तसिक्खावए दुवालसविहे सावयधम्मे पडिवन्ने / तए णं तव अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुम्बजागरियं ........."जाव पुन्वचिन्तियं देवो उच्चारेइ जाव जेणेव प्रसोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि, 2 ता किढिणसंकाइयं जाव तुसिणीए संचिट्ठसि / तए जं पुन्वरत्तावरत्तकाले तव अन्तियं पाउब्भवामि, 'हं भो सोमिला, पव्वइया, दुप्पव्वइयं ते', तह चेव देवो नियवयणं भणइ, जाव पञ्चमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उम्बरपायवे, तेणेव उवागए किढिणसंकाइयं ठवेसि, वेइं बड्डे सि, उवलेवणं संमज्जणं करेसि, 2 त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बन्धेसि, 2 त्ता तुसिणीए संचिट्ठसि / तं एवं खलु, देवाणुप्पिया, तव दुप्पव्वइयं / [23] तत्पश्चात वह सोमिल ब्रह्मर्षि पांचवें दिन के चौथे प्रहर में जहां उदुम्बर (गलर) का वृक्ष था, वहाँ आए। उस उदुम्बर वृक्ष के नीचे कावड़ रखो। वेदिका बनाई यावत् काष्ठमुद्रा से मुख बांधा यावत मौन होकर बैठ गए। इसके बाद मध्यरात्रि में पुनः सोमिल ब्राह्मण के समीप एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा-'हे सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है।' इस प्रकार पहली बार कही उस देव की वाणी को सुनकर वह मौन बैठे रहे। इसके बाद देव ने दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा—'सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है / ' तब देव द्वारा दूसरी तीसरी बार भी इसी प्रकार कहे जाने पर सोमिल ने देव से पूछा- 'देवानुप्रिय ! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ?' सोमिल के इस प्रकार पूछने पर देव ने कहा-'देवानुप्रिय ! तुमने पहले पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् से पंच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया था। किन्तु इसके बाद सुसाधुओं के दर्शन उपदेश आदि का संयोग न मिलने और मिथ्यात्व पर्यायों के बढ़ने से अंगीकृत श्रावकधर्म को त्याग दिया। इसके अनन्तर किसी समय रात्रि में कुटुम्ब संबन्धी विचार करते हुए तुम्हारे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि गंगा किनारे तपस्या करने वाले विविध प्रकार के तापसों में से दिशाप्रोक्षिक तापसों के पास लोहे के कड़ाह, कुडछी और तांबे के तापसपात्र न्हें लेकर दिशाप्रोक्षिक तापस बनं। इत्यादि सोमिल ब्राह्माण द्वारा पूर्व में चिन्तित सभी विचारों को देव ने दुहराया और कहा-फिर तुमने दिशाप्रोक्षिक प्रव्रज्या धारण की। प्रव्रज्या धारण कर अन्त में यह अभिग्रह लिया यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था, वहाँ आए और कावड़ रख वेदी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org