Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ वर्य३: पंचम अध्ययन] [89 नमस्कार करके यावत् बत्तीस प्रकार की नृत्यविधियों को प्रदर्शित कर जिस दिशा से आया था, वापिस उसी दिशा में लोट गया। तब गौतम स्वामी ने भगवान से उस देव की दिव्य देव-ऋद्धि आदि के अंतर्धान होने के विषय में पूछा / भगवान् ने कूटाकारशाला के दृष्टान्त द्वारा समाधान किया। तत्पश्चात् उसके पूर्वभव के विषय में गौतम द्वारा पूछने पर भगवान् ने बताया गौतम ! उस काल और उस समय इसी जम्बू द्वीप के भरतक्षेत्र में धन-वैभव इत्यादि से समृद्ध--संपन्न मणिपदिका नाम की नगरी थी। उस नगरी के राजा का नाम चन्द्र था और ताराकीर्ण नाम का उद्यान था। उस मणिपदिका नगरी में पूर्णभद्र नाम का एक सद्गृहस्थ रहता था, जो धन-धान्य इत्यादि से संपन्न था / उस काल और उस समय जाति एवं कुल से संपन्न यावत् जीवन की आकांक्षा और मरण के भय से रहित, बहुश्रुत स्थविर भगवन्त बहुत बड़े अन्तेवासीपरिवार के साथ पूर्वानुपूर्वी से विचरण करते हुए समवसृत हुए-मणिपदिका नगरी में पधारे। जनसमूह उनकी धर्मदेशना श्रवण करने निकला। 58. तए णं से पुण्णभद्दे गाहावई इमीसे कहाए लढे हट्ठ० [जाव] जहा पण्णत्तोए गङ्गदत्ते, तहेव निग्गच्छइ, [जाब] निक्खन्तो [जाव ] गुत्तबम्भयारी। तए णं से पुण्णभद्दे अणगारे भगवन्ताणं अन्तिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, 2 ता बहूहि चउत्थछट्टट्ठम [जाय] भाविता बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 ता मासियाए संलेहणाए सठ्ठि भत्ताई अणसणाए छेदत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुग्णभद्दे विमाणे उक्वायसभाए देवसयणिज्जंसि [जाव] भासामणपज्जतीए / ___ एवं खलु, गोयमा ! पुण्णभद्देणं देवेणं सा दिव्वा देविड्डी [जाव] अभिसमन्नागया। 'पुण्णमद्दस्स णं भन्ते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता?' 'गोयमा, दो सागरोदमाई ठिई पन्नत्ता।' 'पुण्णभद्दे गं भन्ते ! वेवे तानो देवलोगाओ [जाव] कहिं गच्छिहिइ, कहि उववज्जिहिइ ?' 'गोयमा ! महाविदेहे वासे सिमिहिइ [जाव] अन्तं काहिइ [58] पूर्णभद्र गाथापति उन स्थविरों के आगमन का वृत्तान्त जानकर हृष्ट-तुष्ट हुआ इत्यादि यावत् भगवती-सूत्रोक्त गंगदत्त' के समान दर्शन के लिए गया यावत् उनके पास प्रवजित हुप्रा यावत् ईर्यासमिति आदि से युक्त गुप्तब्रह्मचारी अनगार हो गया। तत्पश्चात् पूर्णभद्र अनगार ने उन स्थविर भगवन्तों से सामायिक से प्रारंभ कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टमभक्त आदि तपःकर्म से आत्मा को परिशोधित करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया। पालन करके मासिक संलेखनापूर्वक साठ 1. गंगदत्त के वर्णन के लिए देखिए भगवतीसूत्र शतक 16 उद्देशक-५ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org