Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन] [87 इत्यादि, जिस प्रकार पूर्वभव में सुभद्रा प्रवजित हुई थी, उसी प्रकार यहाँ भी वह प्रवजित होगी और आर्या होकर ईर्यासमिति आदि समितियों एवं गुप्तियों से युक्त होकर यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी होगी। 53. तए णं सा सोमा अज्जा सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अङ्गाई अहिज्जइ, 2 ता बहूइं छ?मट्ठमदसमदुवालस जाव भावेमाणी बहूहि वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, 2 त्ता मासियाए संलेहणाए सद्धि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कन्ता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स देविन्दस्स देवरनो सामाणियदेवत्ताए उववज्जिहिइ / तस्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दो सागरोक्माइं ठिई पन्नत्ता। तत्थ णं सोमस्स वि देवस्स दो सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता। [53] तदनन्तर वह सोमा आर्या सुवता आर्या से सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन करेगी। अध्ययन करके विविध प्रकार के बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादशभक्त आदि विचित्र तपःकर्म से आत्मा को भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन / इसके बाद मासिक संलेखना से आत्मा शुद्ध कर, अनशन द्वारा साठ भोजनों को छोड़कर, आलोचना प्रतिक्रमणपूर्वक समाधिस्थ हो, मरणसमय के आने पर मरण करके देवेन्द्र देवराज शक के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी। वहाँ किसी-किसी देव की दो सागरोपम की स्थिति होती है। उस सोम देव को भी दो सागरोपम की स्थिति होगी। 54. 'से णं, भन्ते, सोमे देवे तओ देवलोगाओ आउक्खएणं, जाव चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ, कहिं उवधज्जिहिइ ?' गोयमा, महाविदेहे वासे [जाव] अन्तं काहिसि / [54] इस कथानक को सुनने के पश्चात् गौतम स्वामी ने भगवान से पूछा--'भदन्त ! वह सोम देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने के अनन्तर देवलोक से च्यवकर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा भगवान् ने कहा-'हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अंत करेगा।' 55. निक्खेवो-तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं भगक्या पुष्फियाणं चउत्थस्स अज्मयणस्स अयम? पण्णत्ते तिबेमि / श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा—'पायुष्मन् जम्बू ! इस प्रकार से श्रमण यावत् मुक्तिप्राप्त भगवान् महावीर ने पुष्पिका के चतुर्थ अध्ययन का यह भाव निरूपण किया है / ऐसा मैं कहता हूँ।' // चतुर्थ अध्ययन समाप्त // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org