Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 118
________________ वर्ग 3 : चतुर्थ अध्ययन [85 तत्पश्चात वे सुव्रता आर्या उस सोमा ब्राह्मणी को 'कर्म से जीव बद्ध होते हैं-संसार में परिभ्रमण करते हैं' इत्यादिरूप विचित्र केवलिप्ररूपित धर्मोपदेश देंगी / तब वह सोमा ब्राह्मणी उन सुव्रता आर्या से बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार करेगी और फिर सुव्रता आर्या को वंदन-नमस्कार करेगी। बंदन-नमस्कार करके जिस दिशा से आई थी बापिस उसी ओर लौट जाएगी। ___ तत्पश्चात् सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका (श्राविका) हो जाएगी / तब वह जीव-अजीव पदार्थों के स्वरूप की ज्ञाता, पूण्य-पाप के भेद की जानकार, प्रास्रव-संवर-निर्जरा-क्रिया-अधिकरण (सावद्य प्रवृत्ति करने के मूल कारण) तथा बंध-मोक्ष के स्वरूप को समझने में निष्णात कुशल, परतीथियों के कुतों का खण्डन करने में स्वयं समर्थ (दूसरों को सहायता की अपेक्षा न रखने वाली) होगी। देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि देवता भी उसे निर्ग्रन्थप्रवचन से विचलित नहीं कर सकेंगे। निर्ग्रन्थप्रवचन पर शंका आदि अविचारों से रहित श्रद्धा करेगी। प्रात्मोत्थान के सिवाय अन्य कार्यों में उसकी आकांक्षा-अभिलाषा नहीं रहेगी अथवा अन्य मतों के प्रति उसका लगाव नहीं रहेगा / धार्मिक-प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों के प्राशय के प्रति उसे संशय नहीं रहेगा। लब्धार्थ (गुरुजनों से यथार्थ तत्त्व का बोध प्राप्त करना) गृहीतार्थ, विनिश्चितार्थ (निश्चित रूप से अर्थ को आत्मसात् करना) होने से उसकी अस्थि और मज्जा तक अर्थात् रग-रग धर्मानुराग से अनुरंजित (व्याप्त) हो जाएगी। इसीलिए वह दूसरों को संबोधित करते हुए उद्घोषणा करेगी-आयुष्मन् ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ--प्रयोजनभूत है, परमार्थ है, इसक सिवाय अन्य तीथिको का कथन कूगति-प्रापकहाने से अनथ-अप्रयाजनभूत है। असद विचारों से विहीन होने के कारण उसका हृदय स्फटिक के समान निर्मल होगा, निम्रन्थ श्रमण भिक्षा के लिए सुगमता से प्रवेश कर सकें, अतः उसके घर का द्वार सर्वदा खुला होगा। सभी के घरों, यहाँ तक कि अन्तःपुर तक में उसका प्रवेश शंकारहित होने से प्रीतिजनक होगा / चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णमासी को परिपूर्ण पोषधव्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते हुए श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रासुक एषणीय-निर्दोष आहार, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक-प्रासन, वस्त्र, पात्र, कंबल रजोहरण, औषध, भेषज से प्रतिलाभित करती हुई एवं यथाविधि ग्रहण किए हुए विविध प्रकार के शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवासों से आत्मा को भावित करती हुई रहेगी। तत्पश्चात् वे सुव्रता आर्या किसी समय विभेल संनिवेश से निकलकर-विहारकर बाह्य जनपदों में विचरण करेंगी। विवेचन–पाँच अणव्रत और सात शिक्षाव्रत, ये दोनों मिलकर श्रावक धर्म के बारह प्रकार हैं। इनमें से अणुव्रत श्रावक के मूल व्रत हैं और शिक्षाबत उनको पुष्ट बनाने वाले रक्षक व्रत हैं। इनकी सहायता, अभ्यास आदि से अणुव्रतों का सम्यक् प्रकार से पालन होता है और उनमें स्थिरता पाती है। अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, स्वदार-संतोषव्रत और परिग्रहपरिमाणवत, ये पांच अणुव्रत हैं। इनको अणुव्रत इसलिए कहते हैं कि हिंसा आदि पाप कार्यों और सावद्ययोगों का प्रांशिक त्याग किया जाता है। 1. धर्मोपदेश के विस्तृत वर्णन के लिए प्रोपपातिकसूत्र (श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर) पृ 108 देखिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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