Book Title: Agam 19 Upang 08 Niryavalika Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [कल्पिका यह संसार आदीप्त है-जन्म-जरा-मरण रूप आग से जल रहा है, प्रदीप्त है-धधक रहा है यह आदीप्त और प्रदीप्त है, (अतएव जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह धर जल रहा हो तब वह उस जलते हुए धर में से बहुमूल्य और अल्पभार वाली वस्तुओं को निकाल लेता है और सुरक्षित रखता है, उसी प्रकार मैं अपनी आत्मा को, जो मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, संमत, अनुमत है, जिसे शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा (भूख-प्यास), चोर, सर्प, सिंह, डांस-मच्छर तथा वात-पित्त-कफ जन्य रोग आदि, परिषह, उपसर्ग प्रादि किसी प्रकार की हानि न पहुंचा सकें, इस प्रकार सुरक्षित रक्खा है,) इत्यादि कहते हुए देवानदा के समान वह उन सूव्रता प्रवजित हो गई और पांच समितियों एवं तीन गुप्तियों से युक्त होकर इन्द्रियों का निग्रह करने वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी प्रार्या हो गई। विवेचन--भगवती सूत्र के शतक : उद्देश 33 में देवानन्दा का चरित्र निरूपित किया गया है। देवानन्दा भगवान् महावीर से दीक्षित हुई थी। पहले भगवान् 83 रात्रि देवानन्दा के गर्भ में रहे थे / अतः यह जानकर उस को वैराग्य हुआ / सुमद्रा प्रार्या की अनुरागवृत्ति 40. तए णं सा सुभद्दा अज्जा अन्नया कयाइ बहुजणस्स चेडरूवे संमुच्छिया [जाय] अज्झोववन्ना अभङ्गणं च उव्वट्टणं च फासुयपाणं च अलत्तगं च कङ्कणाणि य अञ्जणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेल्लणगाणि य खज्जल्लगाणि य खोरं च पुष्पाणि य गवेसइ, गवेसित्ता बहुजणस्स दारए वा दारिया वा कुमारे य कुमारियाओ य डिम्भए य डिम्भियाओ य, अप्पेगइयानो अम्मङ्गइ, अप्पेगइयाओ उठवट्टइ, एवं अप्पेगइयाओ फासुयपाणएणं व्हावेइ, पाए रयइ, प्रो? रयइ, अच्छीणी अजेइ, उसुए करेइ, तिलए करेइ, दिगिदलए करेइ, पन्तियाओ करेइ, छिज्जावई खज्जुकरेइ, वण्णएणं समालभइ, चुण्णएणं समालभइ, खेल्लणगाई दलयइ, खज्जलगाई, दलयइ. खीरभोयणं भुजावेइ, पुप्फाई ओमुयइ, पाएसु ठवेइ, जंघासु करेइ, एवं उरूसु उच्छङगे कडीए पिढे उरसि खन्धे सीसे य करयलपुडेणं गहाय हलउलेमाणी 2 आगायमाणी 2 परिगायमाणी 2 पुत्तपिवासं च धूयपिवासं च नत्तुयपिवासं च नत्तिपिवासं च पच्चणुभवमाणी विहरइ / / [40] इसके बाद सुभद्रा ग्रार्या किसी समय गृहस्थों के बालक-बालिकाओं में मूच्छित आसक्त हो गई-उन पर अनुराग-स्नेह करने लगी यावत् प्रासक्त होकर उन बालक बालिकाओं के लिए अभ्यंगन, शरीर का मैल दूर करने के लिए उबटन, पीने के लिए प्रासुक जल, उन बच्चों के हाथ-पर रंगने के लिए मेंहदी आदि रंजक द्रव्य, कंकण---हाथों में पहनने के कड़े, अंजन-काजल आदि, वर्णक-चंदन आदि, चूर्णक-सुगन्धित द्रव्य (पाउडर), खेलनक-खिलौने, खाने के लिए खाजे आदि मिष्टान्न, खीर, दूध और पुष्प-माला प्रादि की गवेषणा करने लगी। गवेषणा करके उन गहस्थों के दारक-दारिकाओं, कुमार-कुमारिकाओं, बच्चे-बच्चियों में से किसी की तेल मालिश करती, किसी को उबटन लगाती, इसी प्रकार किसी को प्रासुक जल से स्नान कराती, किसी के पैरों को रंगती, अोठों को रंगती, किसी की आँखों में काजल प्रांजती, ललाट पर तिलक लगाती, केशर का तिलक-विन्दी लगाती, किसी बालक को हिंडोले में झुलाती तथा किसी-किसी को पंक्ति में खडा करती, फिर उन पंक्ति में खड़े बच्चों को अलग-अलग खड़ा करती, किसी के शरीर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org