Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 01
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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१४
शतक १. - उद्देशक ३.
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कामोनीय कर्मजीवकृती रीतिमा चार प्रकार. एक प्रकारनो स्वीकारनैरविकादि भोगी दंडक संबंध कांक्षामोहनीय विचारचोदंड संबंध कांक्षामोहनीय विधेये काळविषयक चिंतन व उपचय उदीरण, वेदन, निर्भरण संग्रह. कांक्षामोहनीवनः बेदननी रीति वेदननी कारण संदेह संघ की परधर्म फसाशंका. अनिधितप विपरीत जिनभाषित सत्य. - तेम माननार - आचरनार आराधक. - अस्तित्व तथा नास्तित्वना परिणामनो विचार — प्रयोग. खभाव. कांक्षामोद्दनीय बंध तेनी रीति. - कारण --प्रमाद अने योग. -- प्रमादनो जनक योग. योगनुं जनक वीर्य. वीर्यनुं जनक शरीर. शरीरनो जनक जीव उत्थान तथा कर्मादिकनी अस्तिता. —— उदीरण. – गर्हण. - संवरण. कोनुं उदीरण ? -- उदीरणायोग्यनुं उदीरण. - उत्थानादिकवडे उदीरण. अनुदीर्णनं उपशमन पूर्ववद् परिपाठ. उदयप्राप्तनुं निर्जरण नैरविकादिकमितकुमारांत जीवविषे वेदन विचार पृथिवीकायिक जीवकांक्षा मोहनीयने वेदे ? – हा. -तेने तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन के वचन छे ? – नथी. तो पण वेदे . - जिनोक्त सत्य. - ए प्रमाणे चार इंद्रियवाळा जीसुधी विचारी पेठे दिन तिने यावत् वैज्ञानिको मनोकांक्षामोदने वेदे ! डा. प्रेम-ज्ञानना, दर्शना चारित्रना, वेषना, प्रवचनना, प्रवचनाभ्यासी पुरुषना, कल्पना, मार्गना, मतना, भांगाना, नयना, नियमना अने प्रमाणना द जो संदिग्ध पायी पर्म लगनाची, फलाशंका थयाथी, अनिधितप तथा विपरीतता पाययायी श्रमणो कांक्षामोहने वेदे छे. उद्दे शकसमाप्ति. -
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११३ – १३०
शतक १. - उद्देशक ४.
कर्म प्रकृति केटली ? - आठ गाथा. - उपस्थान. वीर्यथी के अवीर्यथी ? - बालवीर्य. - पंडितवीर्य. - अपक्रमण. उपशांत मोहनीय. पोताथी अपक्रमे के परी अमेचि अने खरचि करेल कर्म देवा विना छूटकारो याद ? ना. कारण ये प्रकार फर्म अरहंते जानेआभ्युपयमिकी वेदना औषकमकी वेदना पुल हई? ??. कंप. जीव मात्र संयमादियों मनुष्य सिद्ध थयो ? थाय छे ? अने थशे ? ना. कारण. आधोवधिक. — परमाधोवधिक. – केवली सिद्ध थया ? हा. - केवलज्ञानी थया पछी दावी पूर्ण काया.उद्देशकसमाप्ति
भाग
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१३१ – १४०
शतक १. - उद्देशक ५.
पृथिवीओ केटी ! सारा
सामां के निवावास अशुरकुमारावसो केटा ! विवीकायिकावासी केटला ? ज्योतिकावासो विमानाचा फेटा ! सपद नैरविकरिवतिस्थान, गैरविको शुंकोोपयुक्त, मानोपयुक्त, मावोपख भने सोमपयुक्त भंगअवगाइनास्थान. शरीर चयन संस्थान वेश्या. हि. ज्ञान. अज्ञान. योग, उपयोग, असुरकुमार स्थितिस्थानादि - भप्रायान्य. पृथिवीकाविक स्थिरस्थान दियादि जीन पिये पूर्ववत् विचार पंचेद्रियचियोनिक मनुष्यवानव्यंतरादि उहेशकसमाति. - १४१-१६०
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शतक १. - उद्देशक ६.
सूर्य जेटले दूरथी उगतो देखाय छे तेटले ज दूरथी आथमतो पण देखाय छे ? – दा. उगता अने आथमता सूर्यनुं प्रकाशक्षेत्र सरखुं छे ?हा. क्षेत्रविचार. लोकांत अलोकांतने अडके ? हा. द्वीपांत सागरांतने अडके ? - छायान्त आतपांतने अडके ? हा. जीवोने प्रा
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नातिपाठ किया - हा किनाविचार एक पायादारोह नामना श्रमणना प्रश्नो पडेलो लोक के अलोक ! बजे पला अने बजे पछीपसा जीनो के अजीबो ? पूर्ववत् पहेंला भन्यो के अभयो ? पहेला शो के असिद्धो पहेली सिद्धि के अधिदिर के पूर्व प्रमाणेना अनेक प्रश्नो श्रीतम प्रश्न ठोकस्थितिमा पेटला प्रकार ? - आठ. - आकाश वगेरेनो परस्पर आधार आधेय भाव. तेनां साधक लौकिक उदाहरणो. जीवो अने पुद्गलो परस्पर बद्ध छे!-- हा. - तेनुं साधक लौकिक उदाहरण. सूक्ष्म स्नेहकाय पडे ? – हा. ते लांबो काळ रहे ? ना उद्देशकसमाप्ति -
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१६१ - १७४
शतक १. - उद्देशक ७.
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नैरधिकोत्पाद विचार. पोटी दंड गैरविकशद्वार विचार योगीशे दंडक नैरमिकउद्वर्तनविचार. उपपन्न. उत्त. विषगतिसमापनअग्रिमतिसमापण बोनी देवदेवच्यवन गर्भशान — गर्ममां उपवतो जीव इंडिया के दिन पिनानो दोय ज्येदिय भानेंद्रियगर्भमा उपजतो जीव शरीर के शरीर विनायो दोष ! अदारिक वैकिय भाहारक तेजस फार्ममा मजतो जीव सौथी पहेलां शुं खाय ? - मातृशोणित. पितृशुक. गर्भमां गया पछी जीव शुं खाय ? - मातृशोणित साथै माताए खाधेलो गर्भ रहे जीवने वा वगेरे होय ना. ते कारण आहार बीजे बोने रूपे परिणमनगर जीव मुख खाय ? - ना. कारण. -- ते आखा शरीरथी आहारादि करे. मातृजीवरसहरणी नाडी. - पुत्रजीवरसहरणी नाडी. - संतानने केटला मातानां अंग होय ? - त्रण. - वारसामां मळेलां अंगो केटला काळ सुधी रहे ? - संतान जीवे त्यां सुधी. गर्भमां गएलो जीव नरके जाय ?--हा.ना. कारण. संज्ञी. गर्भमा रहेल जीवनो शत्रु साथै संग्राम - गर्भमां गएलो जीव देव थाय ? – हा. - ना. गर्भमा रहेल जीवने धार्मिक वचननुं श्रवण जीव गर्भमां चत्तो होय ? - पडखा भेर होय ? — केरीनी पेठे कुब्ज होय ? - उभो होय ! पेठो होय ? —सुतो होय ? - माताने से मुखी भने दुःखे दुःखी दोनदा समये माथा द्वारा अने पथ द्वारा बहार आये तो ठोक आवे व भावे तो मरण पामे. - दुर्वर्ण थाय. - उद्देशकसमाप्ति. -
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१७५-१८८
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