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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि० ४१
वान होता है। यह क्रोध और प्रदोष में भेद बतलाया गया है। इसके दो प्रकार हैं
जीवप्रादोषिकी-जीव सम्बन्धी प्रदोष से होने वाली क्रिया। अजीवप्रादोषिकी-अजीव सम्बन्धी प्रदोष से होने वाली क्रिया।
स्थानांग वृत्तिकार ने अजीव प्रादोषिकी क्रिया का जो अर्थ किया है उससे प्रदोष का अर्थ क्रोधावेश ही फलित होता है। अजीव के प्रति मात्सर्य होना स्वाभाविक नहीं है। इसीलिए वृत्तिकार ने लिखा है कि पत्थर से ठोकर खाने वाला व्यक्ति उसके प्रति प्रदुष्ट हो जाता है, यह अजीवप्रादोषिकीक्रिया है।
पारितापनिकी क्रिया-दूसरे को परितापन (ताडन आदि दुःख) देने वाली क्रिया पारितापनिकी कहलाती है। इसके दो प्रकार हैं
स्वहस्तपारितापनिकी-अपने हाथों अपने या पराए शरीर को परिताप देना। परहस्तपारितापनिकी-दूसरे के हाथों अपने या पराए शरीर को परितापन देना। प्राणातिपातक्रिया के दो प्रकार हैंस्वहस्तप्राणातिपातक्रिया--अपने हाथों अपने प्राणों या दूसरे के प्राणों का अतिपात करना। परहस्तप्राणातिपात क्रिया-दूसरे के हाथों अपने या पराए प्राणों का अतिपात करना।
अप्रत्याख्यानक्रिया का वृत्तिकार ने अर्थ नहीं किया है। इसके दो प्रकारों का अर्थ किया है । उससे अप्रत्याख्यानक्रिया का यह अर्थ फलित होता है-जीव और अजीव सम्बन्धी अप्रत्याख्यान से होने वाली प्रवृत्ति । तत्त्वार्थवातिक में इसकी कर्मशास्त्रीय व्याख्या मिलती है-संयमघाती कर्मोदय के कारण विषयों से निवृत्त न होना अप्रत्याख्यानक्रिया है।
आरम्भिकीक्रिया-यह हिंसा-सम्बन्धी क्रिया है। जीव और अजीव दोनों इसके निमित्त बनते हैं । वृत्तिकार ने अजीव आरंभिकी क्रिया का आशय स्पष्ट किया है। उनके अनुसार जीव के मृत शरीरों, पिष्ट आदि से निर्मित जीवाकृतियों या वस्त्र आदि में हिंसक प्रवृत्ति हो जाती है।'
पारिग्रहिकी क्रिया-वृत्तिकार के अनुसार यह क्रिया जीव और अजीव के परिग्रह से उत्पन्न होती है। तत्त्वार्थवार्तिक में इसकी व्याख्या कुछ भिन्न प्रकार से की गई है। उसके अनुसार पारिग्रहिकी क्रिया का अर्थ है-परिग्रह की सुरक्षा के लिए होने वाली प्रवृत्ति।
स्थानांगवृत्ति में मायाप्रत्ययाक्रिया के दो अर्थ किए गए हैं१. माया के निमित्त से होने वाली कर्म-बंध की क्रिया। २. माया के निमित्त से होने वाला व्यापार।'
तत्त्वार्थवातिककार ने ज्ञान दर्शन और चारित्र सम्बन्धी प्रवंचना को मायाक्रिया माना है, किन्तु व्यापक अर्थ में प्रत्येक प्रकार की प्रवंचना माया होती है। ज्ञान, दर्शन आदि को उदाहरण के रूप में ही समझा जाना चाहिए।
मिथ्यादर्शनप्रत्ययाक्रिया का अर्थ स्थानांगवृत्ति और तत्त्वार्थवार्तिक में बहुत भिन्न है। स्थानांगवृत्ति के अनुसार मिथ्यादर्शन (मिथ्वात्व) के निमित्त से होने वाली प्रवृत्ति मिथ्यादर्शन क्रिया है।' तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार मिथ्यादर्शन
१. तत्त्वार्थवार्तिक, ६।५। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८ :
अजीवे-पाषाणादौ स्खलितस्य प्रद्वेषादजीवप्राद्वेषिकीति । ३. तत्त्वार्थवार्तिक, ६५:
संयमघातिकर्मोदयवशाद निवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३८:
यच्चाजीवान् जीवकडेवराणि पिष्टादिमयजीवाकृतींश्च
वस्त्रादीन् वा आरभमाणस्य सा अजीवारम्भिकी। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३८:
जीवाजीवपरिग्रहप्रभवत्वात् तस्याः ।
६. तत्त्वार्थवातिक, ६।५:
परिग्रहाविनाशार्था पारिग्राहिकी। ७. स्थानांगवृत्ति, पत्न ३८:
माया-शाठ्यं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया
व्यापारस्य वा सा तथा । ८. तत्त्वार्थवातिक, ६।५ :
ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया। ६. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३८:
मिथ्यादर्शनं-मिथ्यात्वं प्रत्ययो यस्याः सा तथा।
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