Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 1027
________________ ठाणं (स्थान) ३३ शस्त्र (सू० ३ ) वध या हिंसा के साधन को शस्त्र कहा जाता है। वह दो प्रकार का होता है-द्रव्य शस्त्र और भाव शस्त्र । प्रस्तुत सूत्र में दोनों प्रकार के शस्त्रों का संकलन है। इनमें प्रथम छह द्रव्य शस्त्र हैं, शेष चार भाव शस्त्र हैं—आन्तरिक शस्त्र हैं । १८६ ३४. (सू० १४ ) वाद का अर्थ है गुरु-शिष्य के बीच होने वाली ज्ञानवर्धक चर्चा अथवा वादी और प्रतिवादी के बीच जयलाभ के लिए होने वाला विवाद ।' प्रस्तुत सूत्र में वादकाल में होने वाले दोषों का निरूपण है । १. तज्जातदोष - वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं (१) गुरु आदि के जाति, आचरण आदि विषयक दोष बतलाना । (२) वादकाल में प्रतिवादी से क्षुब्ध होकर मौन हो जाना।' अनुवाद द्वितीय अर्थानुसारी है। इसकी तुलना न्याय दर्शन सम्मत 'अननुभाषण' नामक निग्रहस्थान से की जा सकती है। तीन बार सभा के कहने पर भी वादी द्वारा विज्ञान तत्त्व का उच्चारण न करना 'अननुभाषण' नामक निग्रह स्थान है।" २. मतिभंगदोष — इसकी तुलना 'अप्रतिभा' नामक निग्रह स्थान से की जा सकती है। प्रतिपक्षी के आक्षेप का उत्तर न सुझने पर वादी का मौन रह जाना अथवा भय, प्रमाद, विस्मृति या संकोचवश उत्तर न दे पाना 'अप्रतिभा' नामक निग्रहस्थान है। Jain Education International ३. प्रशास्तृदोष – सभानायक और सभ्य - ये प्रशास्ता कहलाते हैं। वे झुकाव या अपेक्षा के वश प्रतिवादी को विजयी बना देते हैं । प्रमेय की विस्मृति होने पर उसे याद दिला देते हैं । इस प्रकार के कार्य प्रशास्ता के लिए अनावरणीय होते हैं । इसलिए इन्हें प्रशास्तृदोष कहा जाता है। ४. परिहरणदोष - वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं (१) अपने दर्शन की मर्यादा या लोकरूढ़ि के अनुसार अनासेव्य का आसेवन नहीं करना । (२) वादी द्वारा उपन्यस्त हेतु का सम्यक् परिहार न करना । उदाहरण स्वरूप बौद्ध तार्किक ने पक्ष की स्थापना की 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृत है, जैसे घट । इस पर मीमांसक का परिहार यह है-तुम शब्द की अनित्यता सिद्ध करने के लिए घटगत कृतत्व को साधन बता रहे हो या शब्दगत कृतकत्व को ? यदि घटगत कृतकत्व को साधन बता रहे हो तो वह शब्द में नहीं है, इसलिए तुम्हारा हेतु असाधारण अनैकांतिक हैं। ' इस प्रकार का परिहरण सम्यक् परिहार नहीं है। यह (परिहरण दोष) मतानुज्ञा निग्रहस्थान से तुलनीय है । उसका अर्थ है – अपने पक्ष में लगाए गए दोष का समाधान किए बिना दूसरे पक्ष में उसी प्रकार के दोष का आरोपण करना मतानुज्ञा निग्रह स्थान है। " १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६७ । २. वही, वृत्तिपत्र ४६७ : तस्य गुर्वादिजति जातिः प्रकारो वा जन्ममर्मकर्मादिलक्षणः तज्जातं तदेव दूषणमितिकृत्वा दोषस्तज्जातदोषः तथाविधकुलादिनां दूषणमित्यर्थः अथवा तस्मात्प्रतिवाद्यादेः सकाशाज्जातः क्षोभान्मुखस्तम्भादि लक्षणो दोषस्तज्जातदोषः । ३. न्यायदर्शन ५।२।१७ विज्ञातस्य परिषदातिरभिहितस्याप्यनुच्चारणमननुभाषणम् । ४. न्यायदर्शन ५।२।१६ : स्थान १० : टि० ३३-३४ उत्तरस्याऽप्रतिपत्तिरप्रतिभा । ५. स्थानांगवृत्ति पत्र ४६७ : परिहरणं- आसेवा स्वदर्शनस्थित्या लोकरूड्या वा अनासेव्यस्य तदेव दोषः परिहरणदोषः, अथवा परिहरणंअनासेवनं सभारूढ्या सेव्यस्य वस्तुनस्तदेव तस्माद्वा दोष: परिहरणदोष, अथवा वादिनोपन्यस्तस्य दूषणस्य असम्यक् - परिहारो जात्युत्तरं परिहरण दोष इति । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६७ ७. न्यायदर्शन ५ २ २१ स्वपक्षदोषाभ्युपगमात् परपक्षदोषप्रसंग मतानुज्ञा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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