Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 1051
________________ शुक्र ठाणं (स्थान) १०१० स्थान १० : टि०५२-५४ ५२, ५३, ५४ (सू० ११७-११६) वृत्तिकार ने बंधदशा के विषय में लिखा है कि वह श्रौत-अर्थ से व्याख्येय है। द्विगृद्धिदशा और दीर्घदशा को उन्होंने स्वरूपतः अज्ञात बतलाया है और दीर्घदशा के अध्ययनों के विषय में कुछ संभावनाएं प्रस्तुत की हैं। नंदी की आगम सूची में भी इनका उल्लेख नहीं है । दीर्घदशा में आये हुए कुछ अध्ययनों का निरयावलिका के कुछ अध्ययनों के नाम साम्य हैं । जैसे --- दीर्घदशा निरयावलिका चन्द्र चन्द्र [तीसरा वर्ग पहला अध्ययन] सूर्य [ , , दूसरा अध्ययन] शुक्र [ , , तीसरा अध्ययन] श्रीदेवी श्रीदेवी [चौथा वर्ग पहला अध्ययन] प्रभावती द्वीपसमुद्रोपपत्ति बहुपुत्रीमंदरा बहुपुत्रिका तीसरा वर्ग चौथा अध्ययन] संभूतविजय पक्ष्म उच्छ्वास निःश्वास वृत्तिकार ने निरयावलिका के नाम-साम्य वाले पांच तथा अन्य दो अध्ययनों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करने के बाद शेष तीन अध्ययनों को [छठा द्वीपसमुद्रोपपत्ति, नौंवा स्थविर पक्ष्म तथा दसवां उच्छवासनिःश्वास ] 'अप्रतीत' कहा है-शेषाणि त्रीण्यप्रतीतानि ।। उनके अनुसार सात अध्ययनों का विवरण इस प्रकार है १. चन्द्र-एक बार भगवान् महावीर राजगृह में समसवृत थे। ज्योतिष्कराज चन्द्र वहां आया। भगवान् को वंदन कर, नाट्य-विधि का प्रदर्शन कर चला गया । गणधर गौतम ने भगवान् से उसके विषय में पूछा। तब भगवान् बोले-यह पूर्वभव में श्रावस्ती नगरी में अंगजित् नाम का श्रावक था । यह पार्श्वनाथ के पास दीक्षित हुआ। श्रामण्य की एक बार विराधना की। वहां से मरकर यह चन्द्र हुआ है। २. सूर्य ---यह पूर्व भव में श्रावस्ती नगरी में सुप्रतिष्ठित नाम का श्रावक था। इसने भी पार्श्वनाथ के पास संयम ग्रहण किया, किन्तु उसे कुछ विराधित कर सूर्य हुआ। ३. शुक्र—एक बार शुक्र ग्रह राजगृह में भगवान् को वंदना कर लौटा। गौतम के पूछने पर भगवान् ने कहा—'यह पूर्व भव में वाराणसी में सोमिल नामक ब्राह्मण था। एक बार यह लौकिक धर्म-स्थानों का निर्माण करा कर दिक्प्रोक्षक' तापस बना। विविध तप करने लगा। एक बार इसने यह प्रतिज्ञा की कि जहाँ कहीं मैं गड्ढे में गिर जाऊंगा वहीं प्राण छोड़ दूंगा। इस प्रतिज्ञा को ले, काष्ठमुद्रा से मुंह को बांध उत्तर दिशा की ओर इसने प्रस्थान किया। पहले दिन एक अशोक वृक्ष के नीचे होम आदि से निवृत्त हो बैठा था। एक देव ने वहां आवाज दी-'अहो सोमिल ब्राह्मण महर्षे ! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।' पांच दिन तक भिन्न-भिन्न स्थानों में यही आवाज सुनायी दी। पांचवें दिन इसने देव से पूछा-मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८५ बन्धदशानामपि बन्धाद्यध्ययनानि धौतेनार्थेन व्याख्यातव्यानि । २. वही, पत्र ४८५ : द्विगृद्धिदशाश्चस्वरूपतो ऽप्यनवसिताः। दीर्घ दशाः स्वरूपतोऽवनगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचिन्नर कावलिकाश्रुतस्कन्धे उपलभ्यन्ते ।। ३. वही, वृत्ति पत्र ४८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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