Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 1053
________________ ठाणं (स्थान) १०१२ स्थान १० : टि० ५६-५७ इसके अनुसार निरयावलिका के पांच वर्गों का नाम अंगचूलिका होता है। ६. अरुणोपपात [अरुण+ अवपात] - अरुण नामक देव का वर्णन करने वाला ग्रन्थ । इस ग्रन्थ का परावर्तन करने से अरुण देव का उपपात (अवपात) होता है-वह परावर्तन करनेवाले व्यक्ति के समक्ष उपस्थित हो जाता है। नंदी के चूर्णिकार ने एक घटना से इसे स्पष्ट किया है एक बार श्रमण अरुणोपपात ग्रन्थ के अध्ययन में संलग्न होकर उसका परावर्तन कर रहा था। उस समय अरुणदेव का आसन चलित हआ। उसने त्वरता के साथ अवधिज्ञान का प्रयोग कर सारा वृतान्त जान लिया । वह अपने पूर्ण दिव्य ऐश्वर्य के साथ उस श्रमण के पास आया; उसे वन्दना कर हाथ जोड़ कर, भूमि से कुछ ऊंचा अधर में बैठ गया। उसका मन वैराग्य से भरा था और उसके अध्यवसाय विशुद्ध थे। वह उस ग्रन्थ का स्वाध्याय सुनने लगा। ग्रन्थ का स्वाध्याय समाप्त होने पर उसने कहा-'भगवन् ! आपने बहुत अच्छा स्वाध्याय किया; बहुत अच्छा स्वाध्याय किया। आप कुछ वर मांगे।' मुनि ने कहा- 'मुझे वर से कोई प्रयोजन नहीं है।' यह सुन अरुण देव के मन में वैराग्य की वृद्धि हुई और वह नि को वन्दना-नमस्कार कर पुनः अपने स्थान पर लौट गया।' इसी प्रकार शेष चार-वरुणोपपात, गरुडोपपात, वेलंधरोपपात और वैश्रमणोपपात-के विषय में भी वक्तव्य है।' ५६. योगवाहिता (सू० १३३) वृत्तिकार ने योगवहन के दो अर्थ किए है१. श्रुतउपधान करना, २. समाधिपूर्वक रहना। प्राचीन समय में प्रत्येक आगम के अध्ययन-काल में एक निश्चित विधि से 'योगवहन' करना होता था। उसे श्रतउपधान' कहते थे। देखें-३।८८ का टिप्पण। ५७. (सू० १३६) स्थविर का अर्थ है-ज्येष्ठ । वह जन्म, श्रुत, अधिकार, गुण आदि अनेक संदों में होता है। ग्राम, नगर और राष्ट्र की व्यवस्था करनेवाले बुद्धिमान, लोकमान्य और सशक्त व्यक्तियों को क्रमशः ग्रामस्थविर, नगरस्थविर और राष्ट्रस्थविर कहा जाता है। ४. प्रशस्तास्थविर-धर्मोपदेशक । ५-७. कुलस्थविर, गणस्थविर, संघस्थविर-वृत्तिकार ने सूचित किया है कि कुल, गण और संघ की व्याख्या लौकिक और लोकोत्तर दोनों दृष्टियों से की जा सकती है। कुल, गण और संघ ये तीनों शासन की इकाइयां रही हैं । सर्वप्रथम कुल की व्यवस्था थी। उसके पश्चात् गणराज्य और संघराज्य की व्यवस्था भी प्रचलित हुई थी। इसमें जिस व्यक्ति पर कुल आदि की व्यवस्था तथा उसके विघटनकारी का निग्रह करने का दायित्व होता, वह स्थविर कहलाता था। यह लौकिक व्यवस्था-पक्ष है। लोकोत्तर व्यवस्था के अनुसार एक आचार्य के शिष्यों को कुल, तीन आचार्य के शिष्यों को गण और अनेक आचाय के शिष्यों को संघ कहा जाता है। १. (क) नंदी, चूणि पृष्ठ ४६ । (ख) नंदी, मलयगिरीयावृत्ति, पत्र २०६, २०७ । (ग) स्थानांगवत्ति, पत्र ४८६ । २. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८६ : एवं वरुणोपपातादिष्वपि भणितव्य मिति। ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८७ । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४८६ : ये कुलस्य गणस्य संघस्य लौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकारिणस्तद्भक्तुश्च निक्राहकास्ते तथोच्यन्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064 1065 1066 1067 1068 1069 1070 1071 1072 1073 1074 1075 1076 1077 1078 1079 1080 1081 1082 1083 1084 1085 1086 1087 1088 1089 1090 1091 1092 1093 1094