Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 1052
________________ ठाणं (स्थान) १०११ स्थान १० : टि० ५५ - क्यों है ? देव ने कहा तूने अपने गृहीत अणुव्रतों की विराधना की है। अभी भी तू पुनः उन्हें स्वीकार कर ।' तापस ने वँसे ही किया । श्रावकत्व का पालन कर वह शुक्र देव हुआ है। ४. श्रीदेवी - एक बार श्रीदेवी सौधर्म देवलोक से भगवान् महावीर को वंदना करने राजगृह में आई । नाटक दिखाकर जब वह लौट गई तब गौतम ने इसके पूर्वभव के विषय में पूछा । भगवान् ने कहा - इस राजगृह में सुदर्शन सेठ रहता था। उसकी पत्नी का नाम 'प्रिया' था। उसकी सबसे बड़ी पुत्री का नाम 'भूता' था। वह पार्श्वनाथ के पास प्रव्रजित हुई, किन्तु उसका अपने शरीर के प्रति बहुत ममत्व था। वह उसकी सार-संभाल में लगी रहती थी। उसने अतिचार की आलोचना नहीं की। मरकर वह देवलोक में उत्पन्न हुई। ५. प्रभावती - यह चेटक महाराजा की पुत्री थी। इसका विवाह वीतभयनगर के राजा उद्रायण के साथ हुआ । यह निरयावलिका सूत्र में उपलब्ध नहीं है। ६. बहुपुत्रिका - यह सौधर्म देवलोक से भगवान् को वंदना करने राजगृह में आई। भगवान् ने इसका पूर्वभव बताते हुए कहा - वाराणसी नगरी में भद्र नाम का सार्थवाद रहता था। उसकी यह भार्या यह सुभद्रा थी। यह वंध्या थी। इसके मन में संतान की प्रबल इच्छा रहती थी। एक बार कई साध्वियां इसके घर भिक्षा लेने आईं। इसने पुत्र प्राप्ति का उपाय पूछा। उन्होंने धर्म की बात कही। वह प्रव्रजित हो गई। दीक्षित हो जाने पर भी वह दूसरों की सन्तानों की देख-रेख में दिलचस्पी लेने लगी। इस अतिचार का उसने सेवन किया । मरकर वह सौधर्म में देवी हुई । ७. स्थविर संभूतविजय – ये भद्रबाहु स्वामी के गुरुभ्राता और स्थूलभद्र तथा शकडालपुत्र के दीक्षा-गुरु थे । ५५. ( सू० १२० ) वृत्तिकार ने संक्षेपिकदशा सूत्र के स्वरूप को अज्ञात माना है ।" नंदीसूत्र में कालिक श्रुत की सूची में इन सभी अध्ययनों के नाम मिलते हैं। " ऐसा प्रतीत होता है कि नंदी में प्राप्त दस ग्रन्थों का एक श्रुतस्कंध के रूप में संकलन कर उन्हें अध्ययनों का रूप दिया गया है। १. क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति २. महतीविमानप्रविभक्ति - जिस ग्रन्थपद्धति में आवलिका में प्रविष्ट तथा इतर विमानों का विभाजन किया जाता है उसे विमानप्रविभक्ति कहा जाता है । ग्रन्थ के छोटे और बड़े रूप के कारण इन्हें 'क्षुल्लिका' और 'महती' कहा गया है। ३. अंगचूलिका - आचार आदि अंगों की चूलिका । ४. वर्गचूलिका - अन्तकृतदशा की चूलिका । ५. व्याख्याचूलिका - भगवती सूत्र की चूलिका । व्यवहारभाष्य की वृत्ति में अंगचूलिका और वर्गचूलिका का अर्थ भिन्न किया है । उपासकदशा आदि पांच अंगों की चूलिका को अंगचूलिका और महाकल्पश्रुत की चूलिका को वर्ग चूलिका माना है।" इन पांचों – दो विमान प्रविभक्तियां तथा तीन चूलिकाओं को ग्यारह वर्ष की संयम पर्याय वाला मुनि ही अध्ययन कर सकता है। " १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४८६ संक्षेपिकदशा अप्यनवगतस्वरूपा एव । २. नंदी सूत्र ७८ । ३. नंदी, मलयगिरीयावृत्ति, पत्र २०६ : आवलिकाप्रविष्टानामितरेषां वा विमानानां प्रविभक्तिः प्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धती सा विमानप्रविभक्तिः । Jain Education International im ४. व्यवहार उद्देशक १०, भाष्यगाथा १०७, वृत्ति पत्र १०८ : अंगाणमंगचूली महकप्पसुयस्स वग्गचूलिओ....... अंगानामुपासकदशाप्रभृतीनां पञ्चानां चूलिका निराafter अंगचूलिका, महाकल्पश्रुतस्य चूलिका वर्गचूलिका । ५. व्यवहारभाष्य १०।२६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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