Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 1056
________________ ठाणं (स्थान) १०१५ स्थान १०:टि० ६०-६१ ६. मृन्मुखी---इसमें शरीर जरा से आक्रान्त हो जाता है, जीवन-भावना नष्ट हो जाती है। १०. शायनी-इसमें व्यक्ति हीनस्वर, भिन्नस्वर, दीन, विपरीत, विचित्त (चित्तशून्य), दुर्बल और दुःखित हो जाता है । यह दशा व्यक्ति को निद्राघूणित जैसा बना देती है।' हरिभद्रसूरि ने नवी दशा का संस्कृत रूप मन्मुखी' और दसवीं का 'शायिनी' किया है। अभयदेबसूरि ने नवी दशा का संस्कृतरूप 'मुङ्मुखी' और दसवीं का 'शायनी' और 'शयनी' किया है। ६०. आभियोगिक श्रेणियां (सू० १५७) ये आभियोगिक देव सोम आदि लोकपालों के आज्ञावर्ती हैं। विद्याधर श्रेणियों से दस योजन ऊपर जाने पर इनकी श्रेणियां हैं। ६१. (सू० १६०) प्रस्तुत सूत्र में दस आश्चयों का वर्णन है। आश्चर्य का अर्थ है-कभी-कभी घटित होने वाली घटना। जो घटना सामान्यतया नहीं होती, किन्तु स्थिति-विशेष में अनन्तकाल के बाद होती है, उसे आश्चर्य कहा जाता है। जैन शासन में आदिकाल से भगवान महावीर के काल तक दस ऐसी अदभुत घटनाएं घटी, जिन्हें आश्चर्य की संज्ञा दी गई है। वे घटनाएं भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों के समय में घटित हुई हैं। इनमें १,२,४,६, और ८ भगवान महावीर से तथा शेष भिन्न-भिन्न तीर्थकरों के शासनकाल से सम्बन्धित हैं। उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है १. उपसर्ग-तीर्थकर अत्यन्त पुण्यशाली होते हैं। सामान्यतया उनके कोई उपसर्ग नहीं होते। किन्तु इस अवसपिणीकाल में तीर्थंकर महावीर को अनेक उपसर्ग हुए । अभिनिष्क्रमण के पश्चात् उन्हें मनुष्य, देव और तिर्यञ्च कृत उपसों का सामना करना पड़ा । अस्थिक ग्राम में शूलपाणि यक्ष ने महावीर को अट्टहास से डराना चाहा; हाथी, पिशाच और सर्प का रूप धारण कर डराया और अन्त में भगवान् के शरीर के सात अवयवों-सिर, कान, नाक, दांत, नख, आँख और पीठ-में भयंकर वेदना उत्पन्न की। एक बार महावीर म्लेच्छदेश दृढ़भूमि 'के' बहिर्भाग में आए। वहां पेढाल उद्यान के पोलासचैत्य में ठहरे और तेले की तपस्या कर एक रात्रि की प्रतिमा में स्थित हो गए। उस समय 'संगम' नामक देव ने एक रात में २० मारणान्तिक कष्ट दिए। १. दसवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पत्न८६ आसां च स्वरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभि : जा यमितस्स जतुस्स जा सा पदमिया दसा । ण तत्थ सुहदुक्खाई, बहु जाणंति बालया ।।१।। बियई च दस पत्तो, गाणाकिड्डाहिं किड्डइ । न तस्थ कामभोगेहि, तिव्वा उप्पज्जई मई ॥२॥ तयइ च दसं पत्तो पंच कामगुणे नरो। समत्यो भुजिउं भोए, जइ से अत्यि घरे धुवा ॥३॥ चउत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्यो बलं दरिसिऊं जइ होइ निरुवद्दवो ॥४॥ पंचमि तु दस पत्तो, आणुपुब्वीइ जो नरो। इच्छियत्थं विचितेइ, कुटुंबं वाऽभिकंखई ॥५॥ छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई ॥६॥ सत्तमि च दस पत्तो, आणुपुव्वीइ जो नरो। निहइ चिक्कणं खेल, खासइ य अभिक्खणं ॥७॥ संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमि दसं । णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ॥८॥ णवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संतो, जीवो वसई अकामओ । हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ। दृब्बलो दुखिओ सुवइ, संपत्तो दसमि दसं ॥१०॥ २. दशवकालिक हारिभद्रीयावृत्ति, पन ८ । ३. स्थानांगवृत्ति, पन ४६३ : मोचनं मुक् जराराक्षसी समा. क्रान्तशरीरगृहस्य जीवस्य मुचं प्रति मुख-आभिमुख्य यस्यां सा मुङमुखीति, शाययति स्वापयति निद्रावन्तं करोति या शेते वा यस्यां सा शायनी शयनी वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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