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ठाणं (स्थान)
स्थान ५ : टि० ६१-६४
६१. (सू० १३६)
प्रस्तुत सूत्र में संयम [ चारित्र] के पाँच प्रकार निर्दिष्ट हैं१. सामायिकसंयम--सर्व सावद्य प्रवृत्ति का त्याग। २. छेदोपस्थापनीयसंयम-पाँच महाव्रतों को पृथक्-पृथक् स्वीकार करना । विभागशः त्याग करना। ३. परिहारविशुद्धिकसंयम- तपस्या की विशिष्ट साधना करने का उपक्रम। ४. सूक्ष्मसंपरायसंयम- यह दशवें गुणस्थानवर्ती संयम है। इसमें क्रोध, मान और माया के अणु उप शान्त या क्षीण हो जाते हैं, केवल सूक्ष्म रूप से लोभाणुओं का वेदन होता है। ५. यथाख्यातचारित्र संयम-वीतराग व्यक्ति का चारित्र। विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि २८१३२, ३३ का टिप्पण।
६२. (सू० १४५)
प्राण, भूत, जीव और सत्त्व-ये चार शब्द कभी-कभी एक 'प्राणी' के अर्थ में भी प्रयुक्त होते हैं, किन्तु इनका अर्थ भिन्न है। एक प्राचीन इलोक में यह भेद स्पष्ट है
प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः ।
जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः ।। दो, तीन और चार इन्द्रिय वाले प्राण, वनस्पति जगत् भूत, पञ्चेन्द्रिय जीव और शेष [पानी, पृथ्वी, तेजस और वायु के जीव] सत्त्व कहलाते हैं।
६३. (सू ० १४६)
अग्रबीज आदि की व्याख्या के लिए देखें--- दसवेआलियं ४। सूत्र ८ का टिप्पण ।
६४. आचार (स० १४७)
आचार शब्द के तीन अर्थ हैं-- आचरण, व्यवहरण, आसेवन ।' आचार मनुष्य का क्रियात्मक पक्ष है। प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान आदि के क्रियात्मक पक्ष का दिशा-निर्देश किया गया है। (१) ज्ञानाचार-श्रुतज्ञान (शब्दज्ञान) विषयक आचरण । यद्यपि ज्ञान पांच हैं किन्तु व्यवहारात्मक ज्ञान केवल श्रुतज्ञान ही है। ज्ञानाचार के आठ प्रकार हैं१. काल --जो कार्य जिस काल में निर्दिष्ट है, उसको उसी काल में करना। २. विनय .....ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र रहना। ३. बहुमान --ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग। ४. उपधान.....श्रतवाचन के समय किया जाने वाला तप । ५. अनिण्हवन ----अपने वाचनाचार्य का गोपन न करना। ६. व्यंजन ....सूत्र का वाचन करना।
१. (क) स्थानांगवृत्ति, पन ६०:
आचरणमाचारो व्यवहारः । (ख) वही, पत्र, ३०६ :
आचरणमाचारो ज्ञानादिविषयासेवेत्यर्थः ।
२. अनुयोगद्वार सूत्र २। ३. निशीथ भाष्य, गाथा ८ :
काले विणये बहुमाने, उबधाने तहा अणिव्हवणे । बंजणअत्यतदुभए, अट्टविधो पाणमायारो॥
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