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ori (स्थान)
७. अर्थ - अर्थबोध करना ।
६३७
८.
सूत्रार्थ- सूत्र और अर्थ का बोध करना ।
(२) दर्शनाचार - सम्यक्त्व विषयक आचरण । इसके आठ प्रकार हैं— निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा,
अमूढदृष्टि, उपबृंहण, स्थिरीकरण, वत्सलता और प्रभावना ।
(३) चारित्राचार - समिति गुप्ति रूप आचरण । इसके आठ प्रकार हैं पांच समितियों और तीन गुप्तियों का प्रणिधान हैं।
( ४ ) तप आचार- बारह प्रकार की तपस्याओं में कुशल तथा अग्लान रहना । "
(५) वीर्याचार ज्ञान आदि के विषय में शक्ति का अगोपन तथा अनतिक्रम ।
६५. आचारप्रकल्प ( सू० १४८ )
इसका अर्थ है - निशीथ नाम का अध्ययन। यह आचारांग की एक चूलिका है। इसमें पांच प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। इनके आधार पर निशीथ के भी पांच प्रकार हो जाते हैं ।
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स्थान ५ : टि० ६५-१०२
६. आरोपणा ( सू० १४६ )
इसका अर्थ है - एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के आसेवन से प्राप्त प्रायश्चित्त का आरोपण करना । इसके पांच प्रकार हैं
१. प्रस्थापिता -- प्रायश्चित्त में प्राप्त अनेक तपों में से किसी एक तप को प्रारंभ करना ।
२. स्थापिता -- प्रायश्चित्त रूप से प्राप्त तपों को स्थापित किए रखना, वैयावृत्त्य आदि किसी प्रयोजन से प्रारम्भ न
कर पाना ।
३. कृत्स्ना -- वर्तमान जैन शासन में तप की उत्कृष्ट अवधि छह मास की है। जिसे इस अवधि से अधिक तप ( प्रायश्चित्त रूप में ) प्राप्त न हो उसकी आरोपणा को अपनी अवधि में परिपूर्ण होने के कारण कृत्स्ना कहा जाता है ।
४. अकृत्स्ना --- जिसे छह मास से अधिक तप प्राप्त हो उसकी आरोपणा अपनी अवधि में पूर्ण नहीं होती । प्रायश्चित्त के रूप में छह मास से अधिक तप नहीं किया जाता। उसे उसी अवधि में समाहित करना होता है। इस
लिए अपूर्ण होने के कारण इसे अकृत्स्ना कहा जाता है।
५. हाडहडा - जो प्रायश्चित्त प्राप्त हो उसे शीघ्र ही दे देना ।
१. निशीथ भाष्य गाथा ६-२०।
२. देखें - उत्तरज्झयणाणि २८।३५ का टिप्पण | ३. निशीथ भाष्य गाथा ३५ :
परिधाणजोगजुत्तो, पंचहि समितीहि तिहिय गुप्तीहि ।
एस चरिताचारी अट्टविहो होति गायव्वो ।
७- १०२. (सू० १६५ )
दुर्ग - दुर्ग का अर्थ है - ऐसा स्थान जहाँ कठिनाइयों से जाया जाता है। दुर्ग के तीन प्रकार हैं
१. वृक्षदुर्ग - सघन झाड़ी ।
२. श्वापद दुर्ग - हिंस्र पशुओं का निवास स्थान ।
३. मनुष्य दुर्ग - म्लेच्छ मनुष्यों की वसति ।
४. देखें - उत्तरज्झयणाणि, अध्ययन २४ ।
५. देखें उत्तरज्झयणाणि अध्ययन ३० ।
६, स्थानांगवृत्ति पत्र ३११ दुःखेन गम्यत इति दुर्ग:, स च विधा - वृक्ष दुर्गः श्वापददुग्र्गा मलेच्छादिमनुष्य दुर्गः ।
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