________________
ठाणं (स्थान)
६४२
स्थान ५ : टि० १०८-११०
इन सूत्रों में बस प्राणी के साथ 'ओराल' (सं० उदार) शब्द का प्रयोग है। उसका अर्थ है--स्थूल । तेजस् और वायुकायिक जीवों को भी त्रस कहा जाता है। उनका व्यवच्छेद कर द्वीन्द्रिय आदि जीवों का ग्रहण करने के लिए नस के साथ ओराल शब्द का प्रयोग किया गया है।'
१०८. (सू० १८३)
यह पाँच प्रकार की वायु उत्पत्ति काल में अचेतन होती है और परिणामान्तर होने पर सचेतन भी हो सकती है।'
१०६ (सू०१८४)
१. पुलाक---नि:सार धान्यकणों की भाँति जिसका चरित्र निःसार हो उसे पुलाकनिर्ग्रन्थ कहते हैं। इसके दो भेद हैं-लब्धिपुलाक तथा प्रतिषेवापुलाक । संघ-सुरक्षा के लिए पुलाक-लब्धि का प्रयोग करने वाला लब्धिपुलाक कहलाता है तथा ज्ञान आदि की विराधना करने वाला प्रतिषेवापुलाक कहलाता है।
२. बकुश—शरीरविभुषा आदि के द्वारा उत्तरगुणों में दोष लगाने वाला बकुश निर्ग्रन्थ कहलाता है । इसके चरित्र में शुद्धि और अशुद्धि दोनों का सम्मिश्रण होने के कारण शबल--विचित्र वर्ण वाले चित्र की तरह विचित्रता होती है।
३. कुशील-मूल तथा उत्तरगुणों में दोष लगाने वाला कुशील निर्ग्रन्थ कहलाता है। इसके प्रमुख रूप से दो प्रकार हैं—प्रतिषेवनाकुशील तथा कषायकुशील । दोनों के पाँच-पाँच प्रकार हैंप्रतिषेवनाकुशील(१) ज्ञानकुशील
(४) लिंगकुशील (२) दर्शनकुशील
(५) यथासूक्ष्मकुशील (३) चरित्रकुशील कषायकुशील
(१) ज्ञानकुशील-संज्वलन कषाय वश ज्ञान का प्रयोग करने वाला। (२) दर्शनकुशील-संज्वलन कषाय वश दर्शन का प्रयोग करने वाला। (३) चरित्नकुशील-संज्वलन कषाय से आविष्ट होकर किसी को शाप देने वाला। (४) लिंगकशील---कषायवश अन्य साधूओं का वेष करने वाला। (५) यथासूक्ष्मकुशील-मानसिक रूप से संज्वलन कषाय करने वाला।
११०. (सू० १६०)
प्रस्तुत सूत्र में पाँच प्रकार के वस्त्र बतलाये हैं। उनका विवरण इस प्रकार है१. जांगमिक-जंगम (वस) जीवों से निष्पन्न । यह दो प्रकार का होता है।(क) विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, वीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) जीवों से निष्पन्न । इसके अनेक प्रकार हैं
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३१६ : नवरमधऊर्ध्वलोकयोस्तैजसा
बादरा न सन्तीति पंच ते उक्ताः, अन्यथा षट् स्युरिति, अधोलोकग्रामेषु ये बादरास्तैजसास्ते अल्पतया न विविक्षताः, ये चोर्ध्वकपाटद्वये ते उत्पत्तुकामत्वेनोत्पत्तिस्थानास्थितत्वादिति, 'ओरालतस' ति वसत्वं तेजोवायुष्वपि प्रसिद्ध अतस्तद्व्यवच्छेदेन द्वीन्द्रियादिप्रतिपत्त्यर्थमोरालग्रहणं, ओराला:स्थूला एकेन्द्रियापेक्षयेति ।
२. स्थानांगवृत्ति, पन्न ३१९ : एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना
अपि भवन्तीति । ३. बृहत्कल्पभाष्य, गाथा ३६६१ :
जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलि दियं च पंचिदी। एकेक पि य एतो, होति विभागणणेगविहं ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org