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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : सूत्र १६० १०. केइ तहारूवं समणं वा माहणं १०. कोपि तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा । १०. कोई व्यक्ति तथारूप-तेजोलब्धिवा अच्चासातेमाणे तेयं णिसिरेज्जा, अत्याशातयन् तेजः निसृजेत्, स च तत्र । सम्पन्न श्रमण-माहन की अत्याशातना से य तत्थ णो कम्मति, णो नो क्रमते, नो प्रक्रमते, आञ्चिताञ्चितं
करता हुआ उस पर तेज फेंकता है। वह
तेज उसमें घुस नहीं सकता। उसके ऊपरपकम्मति, अंचिअंचियं करेति, करोति, कृत्वा आदक्षिण-प्रदक्षिणां
नीचे, नीचे-ऊपर आता-जाता है, दांए-बांए करेत्ता आयाहिण-पयाहिणं करेति, करोति, कृत्वा ऊवं विहायः उत्पतति,
प्रदक्षिणा करता है। वैसा कर आकाश में करेत्ता उड्ड वेहासं उप्पतति, उत्पत्य स ततः प्रतिहतः प्रतिनिवर्त्तते,
चला जाता है। वहां से लौटकर उस उप्पतेत्ता से णं ततो पडिहते पडि- प्रतिनिवृत्त्य तदेव शरीरकं अनुदहत्- श्रमण-माहन के प्रबल तेज से प्रतिहत णियत्तति, पडिणियत्तित्ता तमेव अनुदहत् सह तेजसा भस्म कुर्यात्- होकर वापस उसी के पास चला जाता है, सरीरगं अणुदहमाणे-अणुदहमाणे यथा वा गोशालस्य मङ्खलीपुत्रस्य जो उसे फेंकता है। उसके शरीर में प्रवेश सह तेयसा भासं कुज्जा—जहा वा तपस्तेजः ।
कर उसे उसकी तेजोलब्धि के साथ भस्म
कर देता है । जिस प्रकार मंखलीपुत्र गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवे
गोशालक ने भगवान महावीर पर तेज तेए।
का प्रयोग किया था। [वीतरागता के प्रभाव से भगवान् भस्मसात् नहीं हुए। वह तेज लौटा और उसने गोशालक को
ही जला डाला। अच्छेरग-पदं आश्चर्यक-पदम्
आश्चर्यक-पद १६०. दस अच्छेरगा पण्णत्ता, तं जहा- दश आश्चर्यकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- १६०. आश्चर्य दस हैं - संगहणी-गाहा संग्रहणी-गाथा
१. उपसर्ग-तीर्थकरों के उपसर्ग होना। १. उवसग्ग गब्भहरणं, १. उपसर्गाः गर्भहरणं,
२. गर्भहरण-भगवान् महावीर का इत्थीतित्थं अभाविया परिसा। स्त्रीतीर्थं अभाविता परिषत् ।
गर्भापहरण।
३. स्त्री का तीर्थंकर होना। कण्हस्स अवरकंका, कृष्णस्य अपरकंका,
४. अभावित परिषद्-तीर्थकर के प्रथम उत्तरणं चंदसूराणं॥ उत्तरणं चन्द्रसूरयोः ।।
धर्मोपदेशक की विफलता। २. हरिवंसकुलप्पत्ती, २. हरिवंशकुलोत्पत्तिः,
५. कृष्ण का अपरकंका नगरी में जाना। चमरुप्पातो य अट्ठसयसिद्धा। चमरोत्पातश्च अष्टशतसिद्धः।
६. चन्द्र और सूर्य का विमान सहित पृथ्वी अस्संजतेसु पूआ, असंयतेषु पूजा,
पर आना। दसवि अणंतेण कालेण॥ दशापि अनन्तेन कालेन ।
७. हरिवंश कुल की उत्पत्ति। ८. चमर का उत्पात-चमरेन्द्र का सौधर्म-कल्प प्रथम देवलोक] में जाना। ६. एक सौ आठ सिद्ध-एक समय में एक साथ एक सौ आठ व्यक्तियों का मुक्त होना। १०. असंयमी की पूजा।
-ये दसों आश्चर्य अनन्तकाल के व्यवधान से हुए हैं।
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