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ठाणं (स्थान)
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स्थान ४:टि०८५
वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या दो नयों से की है(१) अप्रीति उत्पन्न करने का पूर्ववर्ती भाव निवृत्त होने पर वह दूसरे के मन में अप्रीति उत्पन्न नहीं कर पाता।
(२) सामने वाला व्यक्ति अप्रीतिजनक हेतु से भी प्रीत होने के स्वभाव वाला है, इसलिए वह उसके मन में अप्रीति उत्पन्न नहीं कर पाता। इसकी व्याख्या तीसरे नय से भी की जा सकती है-सामने वाला व्यक्ति यदि साधक या मुर्ख होता है तो अप्रीतिजनक हेतु होने पर भी उसके मन में अप्रीति उत्पन्न नहीं होती। भगवान महावीर ने साधक को मान और अपमान में सम बतलाया है--
लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा।
समो निंदा पसंसासु, तहा माणावमाणाओ।' साधक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान में सम रहता है। एक संस्कृत कवि ने मुर्ख को भी मान और अपमान में सम बतलाया है--
मूर्खत्वं हि सखे ! ममापि रुचितं यस्मिन् यदष्टौ गुणाः । निश्चितो बहुभोजनो ऽत्रपमनाः नक्तं दिवा शायकः ।। कार्याकार्यविचारणान्धबधिरो मानापमाने समः ।
प्रायेणामयजितो दृढवपुर्मूर्खः सुखं जीवति ।। मित्र ! मुर्खता मुझे भी प्रिय है, क्योंकि उसमें आठ गुण होते हैं । मूर्ख१. चिंता मुक्त होता है। २. बहुभोजन करने वाला होता है। ३. लज्जारहित होता है। ४. रात और दिन सोने वाला होता है। ५. कर्तव्य और अकर्तव्य की विचारणा में अंधा और बहरा होता है। ६. मान और अपमान में समान होता है। ७. रोगरहित होता है। ८. दृढ़ शरीर वाला होता है। वृत्तिकार की सूचना के अनुसार प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद इस प्रकार भी किया जा सकता हैपुरुष चार प्रकार के होते हैं१. कुछ पुरुष दूसरों के मन में यह प्रीति करने वाला है—ऐसा बिठाना चाहते हैं और बिठा भी देते हैं। २. कुछ पुरुष दूसरों के मन में--यह प्रीति करने वाला है-ऐसा बिठाना चाहते हैं, पर बिठा नहीं पाते। ३. कुछ पुरुष दूसरों के मन में यह अप्रीति करने वाला है—ऐसा बिठाना चाहते हैं और बिठा भी देते हैं। ४. कुछ पुरुष दूसरों के मन में-- यह अप्रीति करने वाला है—ऐसा बिठाना चाहते हैं, पर बिठा नहीं पाते।
८५ (सू० ३६१)
प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या उपकार की तरतमता आदि अनेक नयों से की जा सकती है । वृत्तिकार ने लोकोत्तर उपकार की दृष्टि से इसकी व्याख्या की है। जो गुरु पत्र वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे अपनी श्रुत-सम्पदा को अपने तक ही सीमित रखते हैं। जो गुरु फूल वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे शिष्यों को सूत्र-पाठ की वाचना देते हैं। जो गुरु फल वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे शिष्यों को सूत्र के अर्थ की वाचना देते हैं। जो गुरु छाया वाले वृक्ष के समान होते हैं, वे शिष्यों को सूत्रार्थ के पुनरावर्तन और अपाय-संरक्षण का पथ-दर्शन देते हैं। देखें-स्थानांग ३३१५वां टिप्पण।
१. उत्तराध्ययन, १६६० ।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र २२४
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