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ठाणं (स्थान)
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स्थान : ४ टि० १०५-१११
भववर्ती और भवान्तरगामी की दृष्टि से-- भववर्ती
भवान्तरगामी औदारिक
तैजस वैक्रिय
कार्मण आहारक साहचर्य और असाहचर्य की दृष्टि सेसहचारी
असहचारी वैक्रिय
औदारिक आहारक
तैजस
कार्मण औदारिक शरीर जीव के चले जाने पर भी टिका रहता है और विशिष्ट उपायों से दीर्घकाल तक टिका रह सकता है। शेष चार शरीर जीव से पृथक होने पर अपना अस्तित्व नहीं रख पाते, तत्काल उनका पर्यायान्तर (रूपान्तर) हो जाता है।
१०५ (सू० ४६८):
आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय व्याप्त होते हैं, उसे लोक कहा जाता है। धर्मास्तिकाय गतितत्त्व है। इसलिए जहां धर्मास्तिकाय नहीं होता वहां जीव और पुद्गल गति नहीं कर सकते। लोक से बाहर जीव और पुद्गलों की गति नहीं होने का मुख्य हेतु निरुपग्रहता--गतितत्त्व (धर्मास्तिकाय) के आलम्बन का अभाव है। शेष तीन हेतु उसी के पूरक हैं।
रूक्ष पुद्गल लोक से बाहर नहीं जाते, यह लोकस्थिति का दसवां प्रकार है।
१०६-१११ (सू० ४६६-५०४)
ज्ञात के अनेक अर्थ होते हैं-दृष्टान्त, आख्यानक, उपमानमात्र और उपपत्तिमात्र ।' दृष्टान्त
तर्कशास्त्र के अनुसार साधन का सद्भाव होने पर साध्य का नियमत: होना और साध्य के अभाव में साधन का नियमतः न होना-इसका कथन करने वाले निदर्शन को दृष्टान्त कहा जाता है।" आख्यानक
दो प्रकार का होता है-चरित और कल्पित।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र २४० :
जीवेन स्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि, जीवेन हि स्पृष्टान्येव वैक्रियादीनि भवन्ति, न तु यथा औदारिक जीवमुक्त
मपि भवति मृतावस्थायां तथैतानीति । २. स्थानांग, १०१ ३. स्थानांगवृत्ति, पत्न २४१, २४२ : ज्ञातं-दृष्टान्तः,........
....."अथवा आख्यानकरूपं, ज्ञातं,.............. अथवोपमानमानं ज्ञातं,........... अथवा ज्ञातं- उपपत्तिमानं ।
४. वही, पत्र २४१:
ज्ञायते अस्मिन् सति दार्टान्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे क्तप्रत्ययोपादानात् ज्ञातं- दृष्टान्तः, साधनसद्भावे साध्यस्यावश्यंभावः साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्युपदर्शनलक्षणो,यदाह-साध्येनानु गमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता।
ख्याप्यते यत्र दृष्टान्त:, स साधयेतरो द्विधा ।
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