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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ :टि० ३६
१. सूप २. ओदन ३. यवान्न-यब से बना हुआ परमान्न । ४. जलज-मांस ५. स्थलज-मांस ६. खेचर-मांस ७. गोरस ८. जष-जीरा आदि डाला हुआ मूंग का रस । ६. भक्ष्य-खाजा आदि। १०. गुडपर्पटिका-गुड़ की बनी हुई पपड़ी। ११. मूलफल-मूल अर्थात् अश्वगंधा आदि की जड़ें। फल-आम आदि। १२. हरित-आचारांग वृत्ति के अनुसार तन्दुलीयम [चौलाई, धूपारुह, वस्तुल [बथुआ], बदरक [बैर],
मार्जार, पादिका, चिल्ली [लाल पत्तों वाला वथुआ], पालक आदि हरित कहलाते हैं।
चरक के अनुसार हरितवर्ग में अदरक, जम्बीर (पुदीना वा तुलसी भेद), सुरस (तुलसी), अजवाइन, अजक (श्वेत तुलसी), सहिजन, शालेय (चाणक्य मूल), राई, गण्डीर (गण्डीर दो प्रकार का होता है-लाल और सफेद । लाल हरितवर्ग में है और सफेद साकवर्ग में), जलपिप्पली, तुम्बुरु (नेपाली धनियां) शृंगवेटी (अदरक सदृश आकृति वाली), भूतृण (गन्धतृण), खराश्वा (पारसी कयमानी), धनिया, अजमोदा, सुमुख (तुलसी भेद), गृजनक (गाजर), पलाण्डु (प्याज) और लशुन (लहसन) है।
१३. डाक-हींग, जीरा आदि मसाले डाली हुई बथुए जैसी पत्तियों की भाजी। १४. रसाला-दोपल घी, एकपल शहद, आधा आढक दही, २० काली मिर्च और १० पल खांड या गुड़-इनको
मिलाने से रसाला बनती है। इसे माजिता भी कहा जाता है । १५. पानमदिरा १६. पानीयजल १७. पानक-अंगूर आदि का पना। १८. शाक-तरोई आदि का शाक, जो छाछ के साथ पकाया जाता है।
३६—योगवाहिता (सू० ८८):
योगवहन करने वाले मुनि की चर्या को योगवाहिता कहा जाता है। योगवहन का शब्दानुपाती अर्थ है-चित्तसमाधि की विशिष्ट साधना , जैन-परम्परा में योगवहन की एक दूसरी पद्धति भी रही है। आगम-श्रुत के अध्ययनकाल में योगवहन किया जाता था। प्रत्येक आगम तपस्यापूर्वक पढ़ा जाता था। आगम के अध्येता मुनि के लिए विशेष प्रकार की चर्या निर्दिष्ट होती थी, जैसे
१. अल्पनिद्रा लेना। २. प्रथम दो प्रहरों में श्रुत और अर्थ का बार-बार अभ्यास करना। ३. अध्येतव्य ग्रंथ को छोड़कर नया ग्रंथ नहीं पढ़ना। ४. पहले जो कुछ सीखा हो उसे नहीं भुलाना। ५. हास्य, विकथा, कलह आदि न करना।
१. आचारांगनियुक्ति, १२६ : हरितानी–तन्दुलीय का घूयारह वस्तुल बदरक मार्जार पादिका चिल्ली पालक्यादीनि ।
२. चरकसूत्र, अ० २७, हरितवर्ग श्लोक १६३-१७३।
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