Book Title: Agam 01 Ayaro Angsutt 01 Moolam
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 17
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आयारो - १/११६/५५ अप्पेगे मंसाए वहति अप्पेगे सोणियाए वहति अप्पेगे हिययाए वहति अप्पेगे पित्ताए यहंति अप्पेगे वसाए यहति अप्पेगे पिच्छाए वहति अप्पेगे पुच्छाए यहति अप्पेगे बालाए यहंति अप्पेगे सिंगाए वहति अप्पेगे विसाणाए वहति अप्पेगे दंताए वहति अप्पेगे दाढाए वहति अप्पेगे नहाए यहंति अप्पेगे ण्हारुणीए वहति अप्पेगे अट्ठीए वहति अप्पेगे अट्टिमिजाए वहति अप्पेगे अट्ठाए यहंति अप्पेगे अणट्ठाए वहति अप्पेगे हिंसिसु मेत्ति वा यहंति अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहति अप्पेगे हिसिस्संति मेत्ति या यहति ।५४1-53 (५५) एत्य सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिणाया भवंति एत्य सत्थं समारंभमाणस्स इच्छेते आरंभा परिण्णाया भवंति तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं तसकाय-सत्थं समारंभेजा नेवन्नेहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा नेवन्ने तसकाय-सत्थं समारंभंते समणुजाणेजा जस्सेते तसकाय सत्य-समारंभा परिण्णाया भति से हु मुणी परिण्णायकमे - ति बेमि ।५५/-54 .पटपे अन्यपणे छटो उद्देसो समतो. -: सत्त मो - उ हे सो :(५६) पहू एजस्स दुगंछणाए ।५६।-55 (५७) आयंकदंसी अहियं ति नच्चा जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ जे चहिया जाणइ से अज्झत्यं जाणइ एयं तुलमण्णेसिं १५७)-56 (५८) इह संतिगया दविया नाचकंसति जीदिउं ।५८१-57 (५९) लजमाणा पुढोपास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरुवरुवेहि सत्येहिं वाउकम्प-समारंभेणं वाउ-सत्थं समारंभमाणे अन्ने अणेगरुवे पाणे विहिंसति तत्थ खलु भगवया परिण्णा पयेइया इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जई-परणपोयणाए दुक्खपडिघायहेउं से सपमेव वाउ-सत्थं समारंमति अण्णेहि वा वाउ-सत्थं समारंभावेति अन्ने वा वाउ-सत्यं समारंभंते समणुजाणति तं से अहियाए तं से अबोहीए से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए सोच्चा भगवओ अणमाराणं वा अंतिए इहमेगेसि नायं भवति-एस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु निरए इयत्यं गढिए लोए जमिणं विरुवरुवेहि सत्येहिं वाउकम्म-समारंभेणं वाउ-सस्थं समारंभमाणे अन्ने अणेगरुवे पाणे विहिंसति ५९।-58 (६०) [से बेपि-अप्पेगे अंधमन्मे अप्पेगे अंधमच्छे अप्पेगे पायमदमे अप्पेगे पायमच्छे अप्पेगे संपमारए अप्पेगे उद्दवए ] से बेमि-संति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति य फरिसं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावनंति जे तत्य संपायमावनंति ते तस्य परियावजंति जे तत्थ परियावनंति ते तत्य उद्दायंति एत्य सत्यं समारंभमाणस्स इचेते आरंमा अपरिण्णाचा भयंति एत्थ सत्थं असमारंभपाणस्स इचेते आरंभा परिण्णाया भवंति तं परिण्णाय मेहावी नेव सयं वाउ-सत्यं समारंभेजा नेवण्णेहिं वार-सस्थ समारंभावेजा नेवन्ने वाउ-सत्यं समारंभंते समणुजाणेजा जस्सेते वाउ-सत्थ-समारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्पे त्ति येमि ।६०1-59 (११) एत्थं पि जाणे उवादीयमाणा जे आयारे न रमंति आरंभमाणा विणयं विवंति छंदोवणीया अज्झोववण्णा आरंभसत्ता पकरेंति प्तंगं १६५।-60 For Private And Personal Use Only

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