Book Title: Acharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan Author(s): Kusumpragya Shramani Publisher: Jain Vishva BharatiPage 19
________________ स्वकीयम् भारतीय संस्कृति की साहित्यिक परम्परा में संत-साहित्य का अपना विशिष्ट स्थान है। संत-साहित्य का महत्त्व केवल वर्तमान में ही नहीं, भविष्य के लिए भी होता है, क्योंकि इस साहित्य ने कभी भोग के हाथों योग को नहीं बेचा, धन के बदले आत्मा की आवाज को नहीं बदला तथा शक्ति और पुरुषार्थ के स्थान पर कभी अक्षमता और अकर्मण्यता को नहीं अपनाया। ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि संत अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक होते हैं। आचार्य तुलसी बीसवीं सदी की संत परम्परा के महान् साहित्य स्रष्टा युगपुरुष हैं। उनका साहित्य परिमाण की दृष्टि से ही विशाल नहीं, अपितु गुणवत्ता एवं जीवन-मूल्यों को लोकजीवन में संचारित करने की दृष्टि से भी इसका विशिष्ट स्थान है । गिरते सांस्कृतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का संकल्प इस साहित्य में पंक्ति-पंक्ति पर देखा जा सकता है। आचार्य तुलसी ने सत्यं, शिवं और सौन्दर्य की युगपत् उपासना की है, इसलिए उनका साहित्य मनोरंजन एवं व्यावसायिकता से ऊपर सृजनात्मकता को पैदा करने वाला है। उनके लेखन या वक्तव्य का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति, प्रशंसा या किसी को प्रभावित करना नहीं, अपितु स्वान्तः सुखाय एवं स्व-परकल्याण की भावना है। इसी कारण उनके विचार सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । उनका साहित्य हृदयग्राही एवं प्रेरक है, क्योंकि वह सहज है। वह भाषा-शैली का मोहताज नहीं, अपितु उसमें हृदय एवं अनुभव की वाणी है, जो किसी भी सहृदय को झकझोरने एवं आनंदविभोर करने में सक्षम है। आचार्य तुलसी के साहित्यिक व्यक्तित्व की दो विशेषताओं ने मुझे अत्यन्त प्रभावित किया है ---- __. मौलिक विचारों की प्रस्तुति के बाद भी उन्होंने यह गर्वोक्ति कहीं नहीं की कि वे किसी मौलिक तत्त्व का प्रतिपादन कर रहे हैं। ० प्रतिदिन हजारों की भीड़ में घिरे रहकर, लाखों पर अनुशासन करते हुए भी उन्होंने निर्बाध गति से साहित्य-सृजन किया है । मूड या एकान्त हो, तब लिखा या सरजा जाए, इस बात को वे जानते ही नहीं। जब कलम लेकर बैठे, कागज पर विचार अंकित हो गए। जो भी विषय सामने आया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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