Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 06
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294]
- उत्तराध्ययन 1948 जो पथिक जीवन की इस लम्बी यात्रा में बिना पाथेय लिए लम्बे मार्ग पर चल देता है, वह आगे जाता हुआ भूख और प्यास से पीड़ित होकर अत्यन्त दु:खी होता है। 145. भोग-परिणाम, दुःखद
अम्मतायए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा । पच्छा कडुयविवागा, अणुबंध दुहावहा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294]
- उत्तराध्ययन 1902 हे माता-पिता ! मैंने भोग भोग लिए हैं । ये भोगे हुए भोग विषफल के समान हैं, अन्त में कटुफल देनेवाले हैं और निरन्तर दुःखों को लानेवाले
हैं।
146. दुःखमय संसार अहो दुक्खो हु संसारो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294]
- उत्तराध्ययन - 1945 निश्चय ही यह संसार चारों ओर से दु:ख ही दु:ख से भरा है । 147. परिणाम दुःखद
जह किंपाग फलाणं, परिणामो ण सुन्दरो । एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुंदरो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 294]
- उत्तराध्ययन - 1947 ____जैसे किंपाकवृक्ष के फलों का अन्तिम परिणाम सुन्दर नहीं होता, वैसे ही भोगे हुए भोगों का परिणाम भी सुन्दर नहीं होता । 148. दुःख ही दुःख
जम्म दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6 • 93