Book Title: Abhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 06
Author(s): Priyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
Publisher: Khubchandbhai Tribhovandas Vora
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भावे न हिंसा तु असंजतस्स, जं वा 5 वि सत्तेण स दाव चेति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 871]
- बृह. भाष्य 3963 संयमी साधक के द्वारा कभी हिंसा हो भी जाय तो वह द्रव्य हिंसा होती है, भाव हिंसा नहीं, किंतु जो असंयमी है, वह जीवन में कभी किसी का वध न करने पर भी भाव रूप से सतत हिंसा करता रहता है। 404. व्रती-अव्रती की हिंसा में अन्तर
जाणं करेति एक्को, हिंसमजाणं पुणो अविरतो य । तत्थवि बंधविसेसो, महंतरं देसितो समए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 871]
- बृह. भाष्य 3938 _एक अविरत (असंयमी) जानकर हिंसा करता है और दूसरा विरत (संयमी) अनजान में । शास्त्र में इन दोनों के हिंसाजन्य कर्मबंध में महान् अन्तर बताया है अर्थात् तीव्र भावों के कारण जानने वाले का अपेक्षाकृत कर्मबंध तीव्र होता है। 405. अप्रमत्त, निर्जराभागी
विरतो पुण जो जाणं, कुणति अजाणं च अप्पमत्तो य । तत्थ वि अज्झत्त समा, संजायति णिज्जराण चओ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 872]
- बृह. भाष्य 3939 अप्रमत्त संयमी चाहे जान में (अपवाद स्थिति में) हिंसा करे या अनजान में, उसे अन्तरंग शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, बंध नहीं । 406. बल जैसा भाव
देहबलं खलु वीरियं, बल सरिसो चेव होति परिणामो ।
__ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 6 पृ. 873]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-6. 157