Book Title: Aaptpariksha Author(s): Umravsinh Jain Publisher: Umravsinh Jain View full book textPage 6
________________ भूमिका। दुःखमय संसार में शांति की आशा से जगह २ पर भटकता हुआ यह जीव सुख प्राप्ति के अनेक उपाय करता है, कभी पर्वतों की कन्दराओं में निवास करता है, कभी गंगा आदि नदियों में गोते लगाता है, कभी सघन बनों में कंटकाकीर्ण भूमि को शय्या, व वृक्षों की छाल को बसन तथा कंदमूल को अशन बनाता है, अनेक देवी देवताओं के मन्दिरों में जाकर मस्तक रगड़ता है, हिमालय जैसे पहाड़ों के शिखर पर समाधि लगाता है । अनेक महात्मा कहलाने वालों को अपना गुरु बनाता है, परन्तु इस संतप्तहृदय पुरुष को कहीं भी शांति नहीं मिलती । अनेक टिकटमाष्टर इस जीव को मुक्ति-पुरी का मुफ्ती टिकट दे अपनी २ दार्शनिक रेलगाड़ियों में बिठा कर घुमाते हैं और मोक्ष नगर में पहुंचाने का दावा करते हैं। परन्तु यह वेचारा अपने शरीररूपी बिस्तरे को लिये हुए बराबर इधर उधर ही घूमता रहता है, न कहीं इस को मुक्ति का मार्ग मिलता है, और न कहीं शांति का उपाय नज़र आता है। एक मोक्ष नगर के परस्पर विरुद्ध अनेक रास्ते बताने वालों के चक्कर में पड़ कर यह बेचारा घबरा जाता है, और विचारने लगता है कि मेरे अभीप्सित मोक्ष नगर का सच्चा मार्ग एक ही हो सकता है । इन, अनेक मागे बताने वालों में सब के सब कदापि सत्यवक्ता नहीं होPage Navigation
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