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एक प्रदेशी है । सत् (अस्तित्व) उत्पादव्यय और ध्रौव्यसहित होनेसे इनसे भिन्न कोई वस्तु नहीं हैं । और ये तीनो अभिन्न रूपसे एक समयही होते है जैसे एक स्वर्णकारने कडा मिटाकर हार बनाया तो उसी क्षण कडेका आकार मिटकर हार रूप आकार की उत्पत्ति हुई और कडे और हारमें स्वर्ण ज्यो का त्यो ध्रौव्यरूपसे बनी रही। सत् के भाव को सत्ता कहते हैं । सत्ता सर्व पदार्थ स्थित, एक समयमें उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक, सविश्वरूप (लोकालोकव्यापक), अनन्त पर्याय सहित और प्रतिपक्ष सहित होती हैं । इस प्रकार वस्तु सत् लक्षणवाली, सत्स्वरूप ही है, वह स्वत: सिद्ध होनेसे अनादि निधन हैं, स्वसहाय, परिवर्तनशील
और निर्विकल्पप्रमाणित है । २ स्वभाव को छोडेबिना जो उत्पादव्यय-धौव्य संयुक्त तथा गुण युक्त पर्याय सहित है उसे द्रव्य कहते है।
२) गुण- जो द्रव्यके साथ त्रिकाल और उसके सम्पूर्ण भागोंमे रहते हैं वे गुण कहलाते है । गुणोंसे द्रव्यकी पहचान होनेसे इनका दूसरा पर्यायवाची नाम लक्षण भी कहा हैं । क्योंकि लक्षणसे लक्ष्यकी पहिचान होती है। द्रव्य के विना गण नही होते और गुणोंके विना द्रव्य नही होता है । इसप्रकार गुण सदा अन्वयी होते है। गुण दो प्रकार के होते है १) सामान्य २) विशेष । जो समान रूपसे सबद्रव्योंमे पाये जाते हैं उन्हे
१ पंचास्तिकाय गाथा । सत्तासवपयत्था सविस्सरुवा अणंत पज्जाया
सप्पडिववखाएगा उत्पादवय धुवेहि संजत्ता ॥ २. पंचाध्यायी श्लोक । तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मानं वा यतः स्वत: सिद्ध
तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पच ।। ३. पंचास्तिकाय १३ । ३ च प्रवचनसारगाथा ८५ .
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