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इसी प्रकार एकान्त से सर्वथा एक रूप तथा अनेक रूप, सर्वथा भेदरूप या अभेद, सर्वथा भव्य रूप या अभव्य रूप, सर्वथा स्वभाव रूप या विभाव रूप, सर्वथा चैतन्य रूप या अचैतन्य रूप, सर्वथा मूर्तिक या अमूर्तिक रूप सर्वथा एक प्रदेशी या अनेक प्रदेशी, सर्वथा शुद्ध या अशुद्ध, सर्वथा उपचरित या अनुपचरिन मानने में कैसे कंसे दोषोंका उद्भावन होगा और वस्तु व्यवस्था में क्या क्या परेशानियां होगी इनका यहां विस्तारसे किया हैं ।
प्ररूपण
अन्तमें सर्वथा एकान्त माननेवालोंसे पृच्छा की गई है कि बतलाइये ? कि सर्वथा शब्द सार्व प्रकार वाचक हैं अथवा सर्वकाल वाचक है अथवा अनेकान्तसापेक्ष वाचक है । चूंकि सर्व शब्द का पाठ व्याकरण शास्त्र में सर्वगण में होनेसे यदि वह सर्वकाल वाचक हैं या अनेकान्त वाचक हैं तो हमारा ही अभिप्राय सिद्ध होता हैं अर्थात् वस्तु एक रूप सिद्ध न होकर अनेक रूपही सिद्ध होती हैं। क्योंकि सर्वथा का अर्थ सर्वकाल सब प्रकार अथवा अनेक धर्मात्मक होता हैं। यदि आप नियम वाचक मानते है कि वस्तु उस विविक्षित एक धर्मरूप ही हैं तो आपके मत में एकअनेक, नित्य अनित्यादि धर्मोकी प्रतीति कैसे संभव हैं? क्योंकि आप तो पदार्थ के केवल एक ही नियत पक्षको स्वीकार करते है । इस प्रकार सर्वथा एकान्त पक्ष माननेवालोंको दूषण देकर यहाँ उनका न्यायसे निराकरण किया गया है ।
११) वय योजना
इस ग्रन्थ का यह प्रकरण वस्तु व्यवस्था को समझने के लिये बहुत ही महत्व पूर्ण और उपयोगी हैं । लोकस्थित द्रव्योंके
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