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ग्रन्थ हैं । स्यादाद जानने के लिये इस ग्रन्थमें प्ररूपित नयवाद जानना अत्यावश्यक है।
आ. देव सेन का समय और उनकी अन्य रचनायें
यह जो सुनिश्चित है कि आलापपद्धति के रचयिता आ. देवसेन ही हैं क्योंकि रचयिता ने स्वयं इस ग्रन्थके अन्त में 'सुख बोधनार्थ आलापपद्धति श्रीमद्देवसेन विरचिता परिसमाप्ता' यह गद्यात्मक वाक्य लिखकर यह बात स्वयं ही स्पष्ट कर दी। स्व. श्रद्धेय पं. कैलाशचन्दजी 'पडितदेव सेन विरचिता' यह पाठ अपनी आलापपद्धतिके अनुवादमें ग्रंथमें दिया है। यह पंडित विशेषण उन्होने ज्ञानी मुनि इस पर लगाया हैं । आलाप पद्धतिके अतिरिक्त आचार्य देवसेन स्वरचित तत्वसार ग्रन्थ के अन्तमें 'मुणिणाह देवसेणेण' पाठ देकर भी यह स्पष्ट घोषित कर दिया है कि वे मुनिनामा आचार्य ही थे।
. लघुनय चक्र के आधार पर यह आलाप पद्धति उन्होने बताई थी। सन १९२० में माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से उनके सोलहवें पुष्प के रूप में नयचक्रादि संग्रह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था उसके प्रारम्भ में देवसेनकृत लघुनय चक्र हैं और इसी नय चक्रके आधार पर आलाप पद्धति की रचना हुई हैं । स्व. श्र. पं. कैलाश चन्द्रजीने नयचक्र की प्रस्तावनामें इस का खुलासा इस प्रकारसे किया है- देवसेन के नय चक्र मे ८७ गाथाए (यह माइल्ल धवलके प्राकृव नयचक्रसे रचित नय चक्र से भिन्न है।) देवसेन ने अपना दर्शनस्तर धारानगरी में निवास करते हुए विक्रम सं. ९९० में रचकर समाप्त किया था। जो दो गाथाए
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