Book Title: Aagam 40 Aavashyak Choorni 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(४०)
"आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+चूर्णि:) अध्ययनं [५], मूलं [सूत्र /३७-६२] / [गाथा-], नियुक्ति: [१२४३-१६५१/१४१९-१५५४], भाष्यं [२२८-२३७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" नियुक्ति: एवं जिनभद्रगणिरचिता चूर्णि:- 2
प्रत
सत्राक
[स.]
||गाथा||
कायोत्सगोत संपडिम्बज्जिस्सामि, साहुणा य किर चिंततव्व-छम्मासखमणं जाव करेमि, ण करेज्जा, एगदिवसेण ऊणगं करेतु जाव प्रामातिपंचमास पंच ३-२-१ अद्धमासो चउत्थं आयंबिल, एवं एगहाणं एगासणं परिमाणिनीय पोरुसी णमोकारोत्ति , अज्जत्तणगाओ। कादिप्रति
क्रमणानि ॥२६॥
यकिर कल्लं जोगवड्डी कातव्या, एवं वीरियायारो ण विराधितो भवति , अप्पा य णिद्धाडितो भवति, जे समत्थो कातुं तं हिदए करेति, अण्णे भणंति-एवं चिंतेतब्ब-किं मए पच्चक्खातब्ब, जदि आवस्मयमादियाणं जोगाणं सकेति संघरणं कातुं ता अभत्तहूँ ववसति, असकेंतो पुरिमडायबिलेगट्ठाणं, असकेंतो निव्वीय असतो पोरुसमादिविभासा, अह चउत्थभत्तिो छटुं ववसइ छट्ठभत्तिओ अट्ठमीमच्चादि विभासा उस्सारेचा संथर्व कातुं पच्छा बंदित्ता पडिवज्जति, सम्येहिवि णमोकारहत्तेहि समर्ग उद्वेतव्यं, एवं सेसएसुवि पच्चक्खाणिसु, पच्छा तिणि धुतीओ अप्पसद्देहिं तहेव भण्णति जथा घरकोइलियादी सत्ता ण उट्ठति, कार्ल | वंदित्ता निवेदिति । जदि चेतियाणि अस्थि तो वंदन्ति धुतिअवसाणे चेत्र, पडिलेहणा मुहणंतगादि संदिसह पडिलेहेमि बहुवेला य। एवं च कालं तुलेतूणं पडिकमति जथा ततिया धूती भणिता पडिलेहणवेला य होति । आह-किं निमित्त विवरीतं पाडक्कमिज्जति जथा सायं गतं तथा पदेवि पडिकमिज्जतु, उच्यते,कोइ साहू णिद्दाइमो होज्जा तो णिवाभिभूतो ण तरति चिंतेतुं, अविय। अंधकारे वैदेताणं आवडणादयो दोसा, असंखडं च तुमं ममं उबरि पडसि, मंदधम्मा य कितिकम लोवेंति, एवमादि, जाव पुण
PR६४॥ तिणि काउस्सग्गा कीरति ताव पभायं होति,एतेण कारणेण विवरीतं कीरति । एवं ता देवसिए भणितं। पक्खिए इमा विधीदेवसियं जाहे पडिकंता णिवेडगपडिकमणेणं ताहे गुरू निविसंति,ताहे वंदित्ता भणंति इच्छामि खमासमणो ! पक्खियं खामण, एवं जहष्णेणं तिष्णि उकोमेणं सम्बे, पच्छा गुरू उद्वेत्तणं अहारायणियाए खामिति, इतरेचि जथाराहणियाए खामति, सम्बेवि |
दीप । अनुक्रम [३७-६२]
RAre
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