Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 191
________________ आत्म-वेदना मेरे कौन यहाँ पोंछेगा आँसू, हा, अञ्चलसे, पारस्परिक सहानुभूति जब भरी हुई हैं छलसे ? समता सीखें यहाँ भला क्या, ईर्षा वश हो करके, सुखका अनुभव यहाँ करें क्या कटु आहें भर-भरके । धर्म हमारा कहां रहेगा जब प्रवर्मने आकर, मानवताका नाश किया है पशुताको फैलाकर । जिवर देखिये उधर आपको दिखलाते सव दीन, धन-शोभा श्रव कहाँ रहेगी जब जग हुआ मलीन ? पास पास करके हमने क्या कर पाया है पास " तिरस्कार अपमान उपेक्षा या कलुपित उच्छ्वास ? पतझड़के पश्चात् नियमतः श्राती मधुर वसन्त, पर पतझड़के बाद यहांपर आया गिगिर अनन्त । दोहावली 3 जीवनभर रटते रहे, हे चातक प्रिय नाम ; मैं तो कभी न ले सका, हा, प्रिय नाम ललाम । १ करकी रेखा देखकर, मनकी रेखा देख ; करकी रेखासे सतत, मनकी रेख विशेष ॥२ निर्मोही बनना चहे, तू मोहीको पूज ; मैल तेलसे धो रहा, हा, तेरी यह सूझ | ३ बैठ महलमें मूढ़ तू, करत पथिक उपहास ; कवसे पतन बता रही, तेरी उठती साँस ॥४ - १६५ - [ 'चन्द्रशतक' से

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