Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 237
________________ 1 देख मुझको व्यथित मनसे हँस रहे तारे गगनसे ; वन्धु मुझपर हँस रहे हैं देखकर लाचार । देखकर मेरा पतन यह हृदयका मेरे रुदन यह ( कह दिया आलोचकोंने) जो कहाते विश्व-विजयी, आज उनकी हार । था क्या आधार ? गीत छुप रहा जीवन तिमिरमे । सजनि, ये क्षण-क्षण सिमटकर मिल रहे धूमिल प्रहरमें । छुप रहा० छुप रही लाली क्षितिजमें, छुप रहा दिनकर गगनसे, और छुपने जा रहे उन्मुक्त खगगण भग्न मनसे, जो रहा अब तक यहाँ, सव वह गया इक ही लहरमें । छुप रहा० जव हृदयको गीत भाया, भाव सब जिसपर लुटाया, और अव तक ज़िन्दगीमें जो, सखे, था प्यार पाया, शोक वह कुछ भी नहीं, सव रह गया पिछले प्रहरमें । छुप रहा ० २११ -

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