Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 239
________________ आज विवश है मेरा मन भी पग-पगपर मेरे प्रतिवन्धन है अन्तरमें भीपण क्रन्दन अरे बँधी सीमाएँ उसकी अल्प जिसे विस्तीर्ण गगन भी । आज विवश है ० ग्रह पतन यह कितना अपना, इससे भी कुछ ज़्यादा सहना, किन्तु दुखी अन्तःका कोई नहीं आज सुनता रोदन भी । आज विवश है ० वे विजयी कहलानेवाले, हम हैं अश्रु वहानेवाले आज परस्पर ऊँच-नीचका है क्यों जगमें सन्विक्षण भी ? आज विवश है ० हम भी अव युगको अपनावें, मिटनेके अरमान जगावें, खोये अधिकारोंको पावें, अपना पथदर्शक कहता है, "भ्रमर रहा कव आज विवश है मेरा मन भी । २१३ - मानव-तन भी" ?

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