Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 238
________________ वेदनाके गीत गाता, विगतकी स्मृतिको सुनाता , बढ़ रहा हूँ शून्यमें मैं, शून्यमें खुदको मिलाता, प्रिय अप्रिय क्या-क्या रहा, यह सोचता पथमें ठहर मैं। छुप रहा० वेदनाके साथ मिलकर, यातनाके साथ घुलकर , प्राप्त जो कुछ कर सका मैं, दो क्षणोंका प्यार बनकर , सब लुटाता जा रहा हूँ, आज इस सूनी डगरमें। छुप रहा जीवन तिमिरमें। मैंने वैभव त्याग दिया है जिसको है जगने ठुकराया, उसको ही मैने दुलराया ; जिसको जगकी घृणा, उसीको अब तक मैंने प्यार किया है। तव जीवन पहचान न पाया, किंचित् सुखमें पथ विसराया ; वैभवहीन अाज हो मैने जगका कुछ उपकार किया है। मानव अपना पय विसराये, कुछ भूले से कुछ भरमाये ; मैंने जबसे जगमें पाये दुखका ही सम्मान किया है। हुए स्वप्न वे दिवस हमारे, त्याग सभी सुख साज पियारे ; आज विश्वके निकट रोगीले प्रस्तुत यह आदर्श किया है। मैंने वैभव त्याग दिया है। - २१२ -

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