Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 228
________________ गीत में दुखसागरकी एक लहर ! जो प्रति क्षण तट चुम्बन करने, आती है आलिंगन भरने, पर तट ठुकराता पग-पगपर, पड़ते हैं अगणित दुख सहने, अनुभव उसका मुझको कटुतर ! 7. निज तन देकर जो जग सिंचन, करती है वनकर यानन्द धन, इसपर भी तो स्नेह नहीं मिलता, लगता नीरस जीवन ; उससे परिचित मेरा अन्तर । तुम क्या जानो दुखकी रेखा, तुमने सुख रत्नाकर देखा ! आहत अन्तर ही समझ सकेगा, ठुकराये अन्तरका लेखा ! तुम तक तो सीमित सुखसागर । मैं अपनेको करती अर्पण, तव सुख-चिन्तन करती प्रति क्षण, तुम इतराते, कुछ प्यार नहीं; होता सुवर्णमय-तन रज-कण ; पीड़ा लहरी हो रही अमर । यह लहर-लहरकी दुख कम्पन, कव मन्द पड़ेगी दिल धड़कन, होगा समाप्त तट निष्ठुरपन, कव लहर-लहरका मंजुमिलन । लहरोंका सुख तटपर निर्भर । २०२ -

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