Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 226
________________ सब भक्त तो चढ़ाते, जल-गन्य-पुष्प-अक्षत; नैवेद्य दीप पावन, फल धूप कर्म-दाहन । में शीग हूँ नवाती, उर भक्ति-भाव मेरे; अव छोड़के जाऊँ कहाँ, , चरणारविन्द तेरे। जन लौटते नहीं है, निष्फल निरांग होकर; 'मैना' पड़ी चरणमें, आँसूकी माल लेकर। साथी सगा न कोई, प्रियतम 'विमल' सिवारे ; अव छोड़के जाऊँ कहाँ, चरणारविन्द तेरे। - २०० -

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