Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 214
________________ जव समुन्दर बढ़ रहा होगा बड़ी भगदड़ मचेगी; और बड़वानल निगोड़ी सामने आकर नचेगी। क्या बुझायेंगे कि 'फायर वर्क्स' मन मारे जलेंगे ; मौत-रानीके यहाँ उस दिन बड़े दीपक जलेंगे। आह ! क्या दुर्दिन अभी वह और भारतमें बढ़ेगा; आजका संहार कल जीवन बनेगा। वह प्रलयका एक दिन प्रतिदिन सरकता आ रहा है ; काल गायक गीतियोंमें ही सही पर गा रहा है। उस महासंगीतका हर प्राणसे कम्पन लहरता; नृत्यकी-सी शान्ति पाता एक क्षण जो भी ठहरता। क्या कभी सम्भावना है दुष्ट दुर्दिन वह टलेगा ; आजका संहार कल जीवन बनेगा। जीवनका ज्वार 'अव मैं ढूंदें किधर प्रेमका वह चिरनिधि साथी तारा; अविरल बहती इन आँखोंकी रोके कौन प्रवल धारा ? दुग्ध भरा था जिस प्यालेमें फूट गयां वह मधु-प्याला; मेरे अन्तस्तलमें वहती चारों धाम विकट ज्वाला। यौवनका कर्पूर रहा जल आज प्रणयकी ज्वालामें; अरे पपीहा प्राण जगा जा इन्हीं पियासे प्राणोंमें । विफल प्रणयिनीका अभाग्य है, हैं टूटे नभके तारे ; कैसे वार सहूँ जीवनका अन्तिम घड़ियोंके सारे । - १८८ -

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