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श्री सुन्दरदेवी, कटनी
यद्यपि श्री सुन्दरदेवीने कविताके प्रांगणमें अभी हाल हीमें पदार्पण किया है, फिर भी अच्छी प्रगति कर ली है। यह कवितामें हृदयके उद्गार सोचे और सरल रूपमें इस प्रकार व्यक्त करती हैं कि इनके अनुभवकी गहराईका अनुमान लग सकता है। आपको शैली माधुनिक और वेदना-प्रधान है।
आप फटनी निवासी स० सिं० धन्यकुमारजीकी वहन हैं। आपका विवाह जवलपुरके ऐसे घरानमें हुआ है, जो देशभक्ति और त्यागके लिए प्रसिद्ध है।
यह दुःखी संसार
आजका संहार कल जीवन वनेगा। इम दुखी संसारमें जितना वने हम सुख लुटा दें; वन सके तो निष्कपट मृदु प्यारके दो कण जुटा दें। हर्पको सो ज्वाल छातीमें जलाकर गीत गायें ; चाहते हैं गीत गाते ही रहें हम रीत जायें। नहि रहे यदि झोपड़ा सन्मार्ग तो फिर भी रहेगा ;
आजका संहार कल जीवन बनेगा।
हम कि मिट्टीके खिलीनं, बूंद लगते गल मरेंगे; हम कि तिनके, पारमें वहते गिखा छू जल मरेंगे। कोनसा वह बुलवुला-जल है न जो अंगार होगा; नागकी कटु किरणका युग-सूर्यसे शृंगार होगा। धारमें वहना कहाँ तक सोचना यह भी पड़ेगा;
आजका संहार कल जीवन बनेगा।
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