Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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पर्वत - मालाएं हों फैली, हों जिनकी मृदु वेल सहेली , चन्द्र-सूर्यकी चंचल किरणे, करती हों क्रीड़ा लुक-छिपकर ,
सुदृढ़ प्राकृतिक वही हमारा , हो अखंड संसार;
छलिया जगके पार। रवि शशि तारे नील गगनमें , जलप्रपात तरु पृथ्वीतलमें, पक्षिगणोंका सुललित गुंजन , तरु टहनीका अभिनव वन्दन ,
मन-रंजन कर पावेंगी नित', विमल प्रेम भंडार;
छलिया जगके पार । सखी, चल, छलिया जगके पार ।
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