Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 211
________________ पहले चारों ओर जहाँ साम्राज्य शान्तिका था फैला; वृद्धि नित्यं पाती थी 'कमला' ज्यों पाती है 'चन्द्रकला'।४ वहाँ दीन दुखियों भूखोंका आज विलखना सुनती हूँ; भारतीय माँका सम्बोधन 'अवला' सुन सिर धुनती हूँ।५ नायक बनकर मेरा भाई सवका शुभ्र सुधार करे; देश-जातिकी करे समुन्नति, अपना भी उद्धार करे ।६ पथसे विचलित मेरा भाई कभी नहीं होने पावे; सज्जनता- रूपी साँचे में ढले, सदा ढलता जावे १७ इतनी कृपा करो, हे रोटी, यह उपकार न भूल सकूँ; जीवन वने वन्धुका उज्ज्वल, . कीर्ति श्रवणकर फूल सकूँ। - १८५ -

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