Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 216
________________ यही सोच है कैसे जाऊ गहरे सागरके उस पार, नाथ दयाकर तुम बन जाओ मेरी X नैयाके पतवार / X X प्राचीने स्वर्णिलता पाई, मुझमें भी नव लाली आई, उपवनमें कलिका मुसकाई, जीवनके कोने-कोने में या मधुर संचार | सुन्दर नव जीवनका मधुरस, 'प्रभा' पूर्ण मलयानिलका यश, आज हुआ सबका सामंजस, बन्धन विगत हुए छिन्नित हो खुला मुक्तिका द्वार । मौन मन्द रवमें मुसकाया, मुझपर नव विकास वन छाया, बहुत खोजकर मैंने पाया, रहे सदा अक्षुण्ण हमारा सोनेका संसार | १९० -

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