Book Title: Aadhunik Jain Kavi
Author(s): Rama Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 218
________________ शशि रजत-सुधा बन रजनीमें मादकता लहराकर जीमें; किसका माधुर्य तेज वनकर रवि-पथपर विखर सिमट जाता। मानसमें कौन छिपा जाता ? भ्रमरसे भ्रमर, तू स्वाधीन उड़ जा। 'विश्वके चंचल हृदयमें रमे तेरे प्राण भोले , ' इस मधुर संसारके मृदु तालपर तव गान डोले, वायुकी उन्मुक्त लहरीने सुनहले पंख खोले , आज तू निर्वन्ध होकर विश्वमें सव ओर उड़ जा। तव हृदयके स्पन्दसे ही हो चली प्रमुदित कली , सरस जीवन कर समर्पित धूलमें मिलने चली , नित नई-सी कलीके उरमें मधुर पासव ढली , ले मधुप, पी आज जी भर, और कल स्वाधीन उड़ जा। नियतिके उरमें लिखा है नित्य परिवर्तन हमारा, नियम वन्धनसे रुकेगी क्या प्रणयकी वेगधारा, कठिन नीरस परिधियोंमें सत्य सुन्दर प्रेम हारा , तू मनोरथके मनोरम पंख पा, निश्चिन्त उड़ जा। भ्रमर, तू स्वाधीन उड़ जा। - १९२ -

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